Tuesday, December 29, 2009

भेंटवार्ता: गणेश शंकर मिश्र, आयुक्त वाणिज्यिक कर


पत्रकार संजय दुबे द्वारा छत्तीसगढ़ के वाणिज्यिक कर आयुक्त से की 19 दिसंबर 2009 को की गई विशेष भेंटवार्ता।
मिश्र जी आपकी प्रशासनिक कार्यप्रणाली में ऐसी कौन सी बात है कि आप जहां भी रहते हैं वह समय वहां के लिए आदर्श और इतिहास बन जाता है ?
शासकीय योजनाओं और नीतियों का क्रियान्वयन इस तरह से किया जाना कि आम आदमी व सर्वहारा वर्ग उससे जुड़ जाए। किसी भी योजना का क्रियान्वयन हम जब उसको धरातल तक पहुंचाकर करना चाहते हैं तो ये चीजें बहुत आवश्यक होती हैं। ब्रिटिश काल में प्रशासनिक अधिकारी जनता से दूरी बनाकर चलते थे, लेकिन अब प्रशासन जनता से जुड़कर कार्य करता है। जनकल्याण के लिए जरूरी है कि अधिकारी लोगों से सामंजस्य बनाकर चलें, यदि ऐसा नहीं होने पर किसी भी योजना का क्रियान्वयन शत-प्रतिशत उसकी भावना के अनुरूप हो पाना संभव नहीं है। आम नागरिकों से प्रत्यक्ष संवाद स्थापित करके ही शासकीय नीतियों और योजनाओं का सही क्रियान्वयन हो सकता है। अनावश्यक रूप से या कृत्रिम ढंग से बनाई गई दूरी का स्पष्ट प्रभाव योजनाओं की सफलता पर पड़ता है। यदि कोई अधिकारी आम लोगों की समस्याओं को हल करने के लिए तत्पर रहता है तो लोगों के बीच इसका अच्छा संदेश जाता है और शासन की अच्छी छवि निर्मित होती है। यही कारण है कि अच्छा कार्य करने वाले अधिकारी को लोग याद रखते हैं।
आप छत्तीसगढ़ के माटी पुत्र हैं और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के सुपुत्र हैं। अपने पिता को आपने किस स्वरूप में जीवन का आदर्श बनाया ? उनकी स्मृति में राज्य में कौन-कौन से कार्य चल रहे हैं ? उनके व्यक्तित्व के बारे में कुछ बताएं।
मेरे पिताजी जीवन में विपरित परिस्थितियों का समना करते हुए अपने आदर्शों पर दृढ़ता से कायम रहे। आज सबसे बड़ी समस्या यह होती है कि विपरित परिस्थितियों में बहुत से लोग अपने सिद्धांतों और जीवन शैली के बारे में कई बार समझौता कर लेते हैं। उन्होंने हमेशा विपरित परिस्थितियों को स्वीकार किया, उसका सामना किया और संघर्ष करते रहे लेकिन अपने सिद्धांतों के साथ कभी समझौता नहीं किया। उनके व्यक्तित्व के इस पहलु को मैं अपने लिए आदर्श मानता हूं और इससे मुझे हमेशा प्रेरणा मिलती रहती है। जब भी कभी विपरित परिस्थितियां आती हैं और ऐसा लगता है कि आगे का रास्ता अंधकारमय है ऐसे में पिताजी की स्मृति एक आत्मिक बल और प्रेरणा प्रदान करती है। पिताजी जबतक जीवित रहे उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के रूप में न तो अपना नाम जुड़वाया और न ही उन्होंने इसका कोई लाभ अपने या अपने परिवार के लिए लिया। उनके स्वर्गवास होने के पश्चात् शासन ने स्वतंत्रता संग्राम में उनके योगदान को देखते हुए शासन ने उन्हें स्वतंत्रता संग्राम सेनानी घोषित करते हुए उनका नाम जोड़ा था। सरकार ने उनके नाम पर पं. रविशंकर शुक्ल विश्विद्यालय में स्वतंत्रता संग्राम सेनानी लखनलाल मिश्र शोध पीठ की स्थापना की। मेरी जानकारी में संभवत: किसी स्वतंत्रता संग्राम के नाम पर देश की यह पहली शोध पीठ है। इसमें छत्तीसगढ़ के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने वाले ऐसे लोग जिनको लोगों ने भुला दिया है ऐसे लोगों की जानकारी एकत्रित करना और भारतीय स्वतंत्रता के इतिहास में उनके योगदान को रेखांकित करना, इस शोध पीठ का उद्देश्य है। इसके अलावा रायपुर नगर निगम द्वारा एक व्यावसायिक परिसर का नामकरण भी पिताजी के नाम पर किया गया है। रायपुर जिले के तिल्दा के पास पैतृक गांव मुरा में जलसंसाधन विभाग का तालाब है उसका नामकरण भी शासन ने पिताजी के नाम पर किया है।
पिताजी दुर्ग थाने के प्रभारी थे। इसी दौरान 15 दिसंबर 1945 को तात्कालीन आईसीएस अधिकारी आर.के. पाटिल महात्मा गांधी के आह्वान पर शासकीय सेवा से इस्तीफा देकर नागपुर जा रहे थे और दुर्ग रेलवे स्टेशन में जब उनकी ट्रेन रूकी तब वहां कांग्रेसी स्वराजी नेताओं का जमावड़ा लगा हुआ था। पिताजी वहां ड्यूटी पर तैनात थे और पुलिस की वर्दी में श्री पाटिल को सैल्यूट किया और कांग्रेसी नेताओं से सूत की माला लेकर उन्हें पहनाते हुए कहा कि मैं आपके रास्ते पर आ रहा हूं। उन्होंने महात्मा गांधी और भारत माता की जय का घोष भी किया। इस घटना को ब्रिटिश सरकार ने शासन के साथ खुले रूप से विद्रोह के रूप में लिया और उनसे स्पष्टीकरण मांगते हुए खेद व्यक्त करने को कहा। लेकिन पिताजी को यह स्वीकार नहीं था कि वे महात्मा गांधी और भारत माता की जय कहने के कारण खेद व्यक्त करते और परिणामस्वरूप उन्होंने सरकारी नौकरी से इस्तीफा दे दिया।
आप कवर्धा में रहे वहां आपने किस समस्या को ज्यादा गंभीरता से लिया ? राजनांदगांव कलेक्टर रहते हुए आपने कई उपलब्धियां हासिल की। खासकर बाल विवाह रोकने और ग्रामीण स्वच्छता अभियान में आपने जो सफलता अर्जित की उसका विवरण जिसके लिए आप राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित भी हुए ।
कवर्धा में मैं 1987 से 1990 तक अनुविभागीय अधिकारी के रूप में पदस्थ था। उस समय कवर्धा जिला नहीं बना था। इस दौरान वहां परिवार कल्याण शिविर का आयोजन किया गया जो उस समय देश का सबसे बड़ा शिविर माना गया था। उसमें 1500 आपरेशन किए गए थे। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह थी कि कवर्धा में जो महात्मा गांधी का चौक है और जहां जयस्तंभ बना हुआ है वह पूरा क्षेत्र अतिक्रमण से भरा हुआ था, जो शहर का हृदय स्थल था। सबसे ज्यादा परेशानी 15 अगस्त और 26 जनवरी को ध्वजारोहण के दौरान होती थी। जगह नहीं होने से प्रशासन को काफी मशक्कत करनी पड़ती थी। इसके अलावा कानून व्यवस्था की समस्याएं भी खड़ी होती थी। हम लोगों ने उस क्षेत्र के लोगों को समझा कर लोगों की सहमति से 500 से ज्यादा अतिक्रमण हटवाए और करीब 25 करोड़ रूपए की जमीन को बेजा कब्जों से मुक्त कराया। वहां के व्यवसायियों को दूसरे स्थान पर जगह देकर बसाया गया जो कि अभी भी कवर्धा में नवीन बाजार के नाम से स्थापित है। इसके अलावा महात्मा गांधी मैदान में जयस्तंभ और शंकराचार्य के चबूतरे को चारों तरफ से घेर करके उसका सौंदर्यीकरण किया गया। यह बहुत बड़ा कार्य था और इसे पूरा करके मुझे बहुत संतोष प्राप्त हुआ।
राजनांदगांव में मैं दिसंबर 2003 से लेकर जून 2006 तक कलेक्टर रहा। वहां की सबसे बड़ी समस्या बाल विवाह कुरीति को लेकर थी। वहां पर इस दौरान एक अभियान चलाया गया और इसमें आम लोगों को भी जोड़ा गया। जनप्रतिनिधियों के अलावा इसमें साहू , कुर्मी, पटेल, सतनामी आदि समाज के लोगों को इसमें शामिल किया गया। समाज के लोगों के साथ बैठक ली और गांव-गांव में प्रशासन के अधिकारी-कर्मचारी व जनप्रतिनिधियों की टीम बना करके ऐसी व्यवस्था की गई कि कहीं पर भी यदि बाल विवाह होता है तो तत्काल इसकी सूचना कलेक्टर को दें। इसके लिए जिला स्तर पर एक कंट्रोल रूम बनाया गया था और उसके टेलीफोन नम्बर को पूरे जिले में प्रचारित किया गया था। इस सामाजिक कुरीति को खत्म करने के लिए जनआंदोलन का स्वरूप दिया गया था और इसका इतना अच्छा परिणाम सामने आया। अगर कहीं बालविवाह होता भी तो खबर मिलती थी कि लोगों ने घर के अंदर लाईट बंद करके और ताला लगाकर बाल विवाह किया। इससे पहली बार लोगों के बीच यह संदेश गया कि बाल विवाह भी एक सामाजिक और कानूनी बुराई है। सन् 1930 से बाल विवाह निरोधक अधिनियम बना हुआ है लेकिन पहले कभी इसके क्रियान्वयन की दिशा में कोई गंभीर प्रयास नहीं किया गया था और इसका परिणाम यह रहा कि करीब 1000 बाल विवाह को रोका गया। राजनांदगांव कलेक्टर रहते हुए मैंने यह दावा किया था कि मेरे जिले में एक भी बाल विवाह नहीं हो रहा है और आज किसी भी जिले में कोई कलेक्टर इस तरह का दावा करने की स्थिति में नहीं है। इसी तरह संपूर्ण स्वच्छता अभियान में पहली बार राजनांदगांव जिले की 13 ग्राम पंचायतों को निर्मल ग्राम का दर्जा देते हुए राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत किया गया। राजनांदगांव ही प्रदेश का पहला ऐसा जिला था जिसे यह पुरस्कार मिला। इसके बाद राज्य के अन्य जिलों में भी इस दिशा में कार्य हुए।
आपने बस्तर में भी कई योजनाएं चलाईं, वहां का अनुभव क्या रहा ? नक्सलवाद होने के बावजूद आपने वहां सफलता के झंडे गाड़े। इसकी विस्तृत जानकारी।
राजनांदगांव में जिस तरह संपूर्ण स्वच्छता अभियान का कार्य किया था वहीं बस्तर में यह कार्य काफी कठिन था क्योंकि राजनांदगांव ऐसा जिला है जहां साक्षरता सबसे अधिक है वहीं बस्तर में साक्षरता सबसे कम है। दूसरा राजनांदगांव जहां मैदानी जिला है, आवागमन के साधन अच्छे हैं वहीं, बस्तर वनाच्छादित, दुर्गम और जंगल के बीच बसा जिला है, जहां नक्सलवाद की समस्या भी व्याप्त है। इसलिए वहां शासकीय नीतियों और योजनाओं का क्रियान्वयन अन्य जिलों की तुलना में अधिक कठिन व चुनौतिपूर्ण रहता है। लेकिन यहां भी हमने ग्रामीण लोगों से मिलकर और पंचायत प्रतिनिधियों का सहयोग लेते हुए संपूर्ण स्वच्छता अभियान को क्रियान्वित किया। बस्तर क्षेत्र में दूषित पानी पीने से जनजनित बीमारियां अन्य जगहों की तुलना में अधिक थी। ऐसी स्थिति में वहां इस योजना का क्रियान्वयन किया जाना बहुत आवश्यक था। साफ-सफाई के प्रति भी वहां लोगों में जागरूकता कम है और इसका मूल कारण लोगों में साक्षरता की कमी है। बस्तर में मैं 15 जून 2006 से 14 अप्रैल 2008 तक कलेक्टर रहा। इस दौरान मैंने इस अभियान में तेजी लाने का प्रयास किया और इसका परिणाम यह रहा कि यहां की 27 ग्राम पंचायतों को निर्मल ग्राम घोषित किया गया और इन्हें भी राष्ट्रपति के द्वारा पुरस्कृत किया गया। उस वर्ष पूरे प्रदेश में बस्तर ही एकमात्र ऐसा जिला था जहां सर्वाधिक ग्राम पंचायतों को निर्मल ग्राम का पुरस्कार दिया गया था। दूसरी एक महत्वपूर्ण समस्या जगदलपुर शहर में जनसंख्या का दबाव बढऩे और अतिक्रमण के कारण शहर का चेहरा विकृत हो जाना थी। इसके सुधार के लिए एक योजना बनाकर और लोगों से चर्चा कर शहर के सात प्रमुख मार्गों से अतिक्रमण हटाने का कार्य किया। सड़क के किनारे स्थित धार्मिक स्थलों को हटाना कठिन कार्य था इसके लिए सभी धर्मों के पुजारियों के साथ बैठक की गई और उनसे सहयोग मांगा गया। इस तरह से मार्ग पर आने वाले 15 धार्मिक स्थलों को स्वेच्छा से हटाया गया, जो बहुत पुराने थे और यातायात को प्रभावित कर रहे थे। इसके साथ ही करीब 11 करोड़ रूपए की एक परियोजना बनाकर सड़कें और नालियां बनाई गईं और वृक्षारोपण किया गया। अतिक्रमण हटाओं अभियान की सफलता यह रही कि 1000 से अधिक लोगों ने स्वेच्छापूर्वक अतिक्रमण हटा लिये। वहां एक और प्रयोग किया गया शहर के चौक-चौराहों पर किसी महापुरूष की प्रतिमां लगाने के स्थान पर बस्तर की कला और संस्कृति को प्रदर्शित करने वाली कलाकृतियां लगाईं गई ताकि पर्यटक बस्तर की कला और संस्कृति को जान सकें। शहर के सात चौराहों का जो सौंदर्यीकरण हुआ उसका पूरे प्रदेश में सराहना हुई और शासन ने इस तरह के कार्य अन्य जिलों में भी करने को कहा। एक और महत्वपूर्ण कार्य जो बस्तर में हुआ वह है औद्योगिकरण। औद्योगिकरण की दृष्टि से यह जिला पिछड़ा था। बस्तर में टाटा स्टील का 5 मिलियन टन क्षमता वाले इस्पात संयंत्र का मार्ग प्रशस्त हुआ। इसके लिए आसपास के दस गांवों में करीब 5 हजार एकड़ जमीन का भू-अर्जन की कार्रवाई को सफलतापूर्वक संपन्न कराया और 35 करोड़ से ज्यादा की राशि प्रभावित ग्रामीणों को वितरित की गई। इसके लिए नगरनार में बनने वाले एनएमडीसी के संयंत्र के लिए भी आवश्यक कार्रवाई की गई। एक और समस्या थी कि बस्तर कलेक्ट्रेट में कर्मचारी देर से कार्यलय आते थे। इसके अलावा यह भी शिकायत थी कि कुछ लोग कभी-कभी शराब पीकर भी कार्यलय आ जाते थे। इस स्थिति को देखते हुए बस्तर कलेक्ट्रेट को सेवासदन के रूप में विकसित किया गया। 1 जनवरी 2008 से स्थिति यह है कि कलेक्टर से लेकर सभी अधिकारी, कर्मचारी प्रतिदिन निर्धारित समय पर एक जगह इक_े होकर गांधीजी का प्रिय भजन 'वैष्णव जन तो तेणे कहिए, जे पीर पराई जाणे रेÓ का गान करते हैं उसके बाद काम की शुरूआत होती है। इसका असर यह हुआ कि जो कर्मचारी शराब पीकर कार्यलय आते थे उन्होंने शराब पीना बंद कर दिया है। इसे मैं प्रशासन में किया गया बहुत बड़ा सफल प्रयोग मानता हूं।
आप उद्योग विभाग में भी रहे, उसके पहले रायपुर नगर निगम में प्रशासक। आज यह शहर छत्तीसगढ़ की राजधानी है इसका गौरव और बड़े इसके लिए क्या प्रयास होने चाहिए ?
जब मैं रायपुर नगर निगम का प्रशासक था तब यह व्यवस्था की थी कि पेयजल, प्रकाश और साफ-सफाई की ओर विशेष ध्यान दिया जाए। मैं सोचता हूं कि यदि तीन चीजों पर ध्यान दिया जाए तो आम आदमी की अस्सी से नब्बे प्रतिशत समस्याओं का ऐसे ही समाधान हो जाता है। मैंने ये प्रयास किया था कि हर जोन के अधिकारी अपने-अपने क्षेत्र में सफाई व्यवस्था देखें, बिजली व्यवस्था देखें और पेयजल व्यवस्था पर सतत नजर रखें। जोन के अधिकारियों को यह निर्देश भी दिया गया था कि वे रात में अपने क्षेत्रों में घूमकर यह देखें कि कितने खंभों में लाईट जल रही, कितने में नहीं। इसी प्रकार सफाई व्यवस्था देखने को भी कहा गया था। शहर के विकास में अतिक्रमण एक बड़ी समस्या थी जो अभी भी है। अपने छह माह के कार्यकाल के दौरान मैंने करीब 1000 अतिक्रमण हटवाए। उस समय पहली बार रायपुर में धार्मिक स्थलों को तोड़ा गया था, जो अवैध थे। इसके अलावा बड़ी संख्या में वृक्षारोपण करवाया गया। वर्तमान समय में समग्र योजना बनाकर उसका क्रियान्वयन करने की आवश्यकता है।
आपको अतिक्रमण हटाओ अभियान का जुनून सा रहा है। बसाओ अभियान के लिए भी क्या ऐसा ही कुछ होता रहा है ?
अतिक्रमण हटाओ अभियान तब तक सफल नहीं हो सकता जब तक प्रभावित लोगों के लिए समुचित व्यवस्था न की जाए, चाहे वह अतिक्रमण रिहाईशी हो या व्यवसायिक हो। दोनों की प्रकार के अतिक्रमण हटाने के पहले जो लोग प्रभावित हो रहे हैं उनकी बातों को सुनना पड़ेगा, उनकी समस्याओं पर विचार करना पड़ेगा जो भी यथासंभव मदद वैकल्पिक बसाहट के रूप में आवश्यक हो व उचित हो वह उन्हें देना चाहिए। जहां भी मैंने अतिक्रमण अभियान चलाया वहां कहीं भी ये स्थिति नहीं हुई है कि कभी कोई कानून व्यवस्था की स्थिति उत्पन्न हो। मैंने जब भी अभियान चलाया उसमें खासबात यह रही जिन लोगों का अतिक्रमण तोड़ा गया उन्होंने स्वंय इस कार्य में सहयोग प्रदान किया। बस्तर में हमने इतनी बड़ी संख्या में अतिक्रमण हटाए लेकिन कोई भी व्यक्ति कोर्ट नहीं गया और न ही किसी ने मुआवजे की मांग की। यदि अतिक्रमण हटाने के कार्य में बड़े और छोटे लोगों का भेदभाव न किया जाए तो लोगों का पूरा सहयोग रहता है और इससे अच्छा संदेश जाता है। नियत साफ हो और बिना किसी पक्षपात के ईमानदारी से काम किया जाए तो लोगों का विश्वास और सहयोग हासिल किया जा सकता है। हमने जहां-जहां अतिक्रमण हटाए लोगों की वैकल्पिक बसाहट का प्रयास किया है।
वाणिज्यिक कर विभाग द्वारा इस वर्ष कर वसूली की क्या स्थिति रही है ?
इस वित्तीय वर्ष में 30 नवंबर तक की स्थिति में विभाग की वृद्धि दर करीब 3 प्रतिशत है। इसका अर्थ है विभाग ने नवंबर तक पिछले वर्ष की तुलना में 3 प्रतिशत अधिक वसूली की है। आथिक मंदी के चलते वसूली प्रभावित न हो इसके लिए विभाग द्वारा समुचित प्रयास किए जा रहे हैं।
सर्वाधिक राजस्व वसूली किस क्षेत्र से होती है ?
सर्वाधिक टेक्स वसूली भिलाई स्टील प्लांट, बालको, प्रकाश स्पंज आयरन, एसईसीएल और अन्य बड़ी कंपनियों के माध्यम से होती है। इसके अलावा पेट्रोल कंपनियां हैं। कुल मिलाकर कहा जाए तो इस्पात, कोयला, पेट्रोल और खनिज आधारित उद्योगों से सर्वाधिक राजस्व वसूली होती है।
सेल टेक्स चोरी करने वालों के खिलाफ क्या कार्रवाई होती है ?
ऐसे क्षेत्र जहां सेल टेक्स चोरी की आशंका रहती है इसके लिए प्रवर्तन विंग गठित है। इसके लिए पूरे राज्य में दो उपायुक्त हैं जो स्थिति पर नजर रखते हैं। इनमें से एक का मुख्यालय रायपुर और एक का बिलासपुर में है। रिर्टन के आधार पर जिन संस्थानों पर शक होता है उन पर छापे की कार्रवाई की जाती है।
विभाग द्वारा उपभोक्ता जागरण पुरस्कार योजना शुरू की गई थी इसका कैसा प्रतिसाद रहा ?
उपभोक्ताओं को जागरूक बनाने के लिए यह इनामी योजना शुरू की गई थी और लोगों का इसके प्रति अच्छा रूझान देखने को मिला। दुकानदार यदि बिल देता है तो उसे इसका लेखा-जोखा प्रस्तुत करना पड़ता है। सेल टेक्स अप्रत्यक्ष कर है जो डीलर के माध्यम से ही प्राप्त होता है। उपभोक्ता जागरण योजना के तहत ग्राहकों से यह कहा गया था कि वो 500 रुपए से अधिक की जो भी खरीदी करते हैं उसका बिल अवश्य प्राप्त करें। इसके लिए दीपावली का समय चुना गया था इसका कारण है कि इस दौरान सभी लोग खरीददारी करते हैं। इसमें उन वस्तुओं को शामिल किया गया था जिनकी खरीदारी आमतौर पर लोग दीपावली के समय करते ही हैं। यह योजना काफी सफल रही। लगभग 50 हजार बिल लोगों ने ड्राप बाक्स में डाले। इसका सबसे बड़ा फायदा यह रहा कि इस योजना के माध्यम से पहली बार वाणिज्यिक कर विभाग आम उपभोक्ताओं तक पहुंच पाया है। इससे उपभोक्ताओं में यह संदेश गया है कि कोई भी खरीदारी करते समय रसीद अवश्य लेनी चाहिए। विभाग द्वारा प्रदेश के 32 लाख मोबाइल उपभोक्ताओं को एसएमएस के जरिए संदेश भेजकर बताया गया कि जो भी खरीदारी करें उसकी रसीद अवश्य लें।
इस योजना के तहत उपभोक्ताओं को पुरस्कार कब तक दिए जाएंगे ?
चुनाव के कारण राज्य में अभी आदर्श आचार संहिता लागू है। चुनाव संपन्न होने और आचार संहिता समाप्त होने के बाद पुरस्कार देने की कार्रवाई शुरू की जाएगी।
अवैध शराब की बिक्री रोकने के क्या प्रयास किए जा रहे हैं ?
इसके लिए जांच उडऩदस्ता बनाया गया है। जहां पर शिकायत प्राप्त होती है वहां टीम जाकर कार्रवाई करती है।
केन्द्र सरकार 1 अप्रैल 2010 से गुड्स एण्ड सर्विस टेक्स (जीएसटी) लागू करने जा रही है। इसके लिए विभाग द्वारा क्या तैयारियां की गई हैं ?
जीएसटी का मतलब गुड्स एण्ड सर्विस टेक्स है। जिस तरह पहले सेल टेक्स हुआ करता था उसके बाद वैल्यू एडेड टेक्स आया, इसी कड़ी में जीएसटी है। इसमें कई तरह के करों को एक में ही मिला दिया गया है जैसे मनोरंजन कर, विलासिता कर आदि। इसमें वस्तु और सेवाकर मिला होगा। यह दो प्रकार का होगा एक स्टेट जीएसटी और दूसरा सेंट्रल जीएसटी होगा। इसमें केन्द्र और राज्य अलग-अलग वस्तुओं पर कर लगाएगा। इसमें कुछ नए प्रावधानों को शामिल किया गया है। हालांकि छत्तीसगढ़ सरकार ने इसे 1 अप्रैल 2010 की बजाय 1 अप्रैल 2011 से लागू करने की मांग रखी है। अभी इस बारे में अंतिम निर्णय नहीं हुआ है। इस संबंध में वाणिज्यिक कर विभाग व्यापारियों से चर्चा कर उनकी राय भी जान रहा है और यह प्रक्रिया अभी चल रही है।
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Saturday, November 21, 2009

सच्चिदानंद जोशी, कुलपति पत्रकारिता विवि

रायपुर स्थित कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय छत्तीसगढ़ का पहला व देश का दूसरा पत्रकारिता विश्वविद्यालय है। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल के संस्थापक कुलसचिव रहे सच्चिदानंद जोशी कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विवि के कुलपति हैं। विश्वविद्यालय के प्रथम कुलपति के रूप में उन्होंने 17 मार्च 2005 को अपना कार्यभार ग्रहण किया था। वे इस विश्वविद्यालय को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने में लगातार प्रयासरत हैं। उनसे यह बातचीत पत्रकार संजय दुबे द्वारा 13-10-09 को की गई थी।

पत्रकारिता विश्वविद्यालय के प्रथम कुलपति के रूप में आप अपनी प्रमुख उपलब्धि क्या मानते हैं ?
जब यह विश्वविद्यालय शुरू हुआ था तब शून्य स्थिति में था और आज यहां विभिन्न पाठ्यक्रम संचालित हो रहे हैं। आवश्यक अधोसंरचना का विकास, अध्यापकों और स्टॉफ की नियुक्ति, विश्वविद्यालय परिसर के प्रथम चरण के निर्माण को पूरा करना और आवश्यक सुविधाओं का विकास अगर उपलब्धि है तो शायद यही मेरी उपलब्धि होगी।

वर्तमान में इस विश्वविद्यालय द्वारा कौन-कौन से पाठ्यक्रम संचालित हो रहे हैं ?
अभी चार स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम यहां संचालित हो रहे हैं। इनमें मास्टर ऑफ जर्नेलिज्म, मास्टर ऑफ एडवरटाइजिंग एंड पब्लिक रिलेशनस, एम. एससी. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और मास्टर ऑफ मास कम्युनिकेशन शामिल हैं। इसके अलावा छत्तीसगढ़ के 8 महाविद्यालयों में बैचलर ऑफ जर्नेलिज्म एंड मास कम्युनिकेशन का तीन वर्षीय पाठ्यक्रम भी शुरू किया गया है। इस पाठ्यक्रम के तीन साल पूरा होने से एक बैच बाहर आ गया है। इस विश्वविद्यालय द्वारा कुछ पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा पाठ्यक्रम भी संचालित किए जा रहे हैं।

कोई नया पाठ्यक्रम शुरू करने की योजना है ?
अगले सत्र से हमारी योजना तीन नए पाठ्यक्रमों को शुरू करने की है। इनमें मीडिया मैनेजमेन्ट पर आधारित एम.बी.ए., मास्टर आफ सोशल वर्क और शोध से संबंधित पाठ्यक्रम शामिल हैं। शोध आधारित पाठ्यक्रम में पीएच.डी. से संबंधित होगा।

विशेषज्ञता वाले पाठ्क्रमों की क्या स्थिति है ?
वर्तमान में विशेषज्ञता वाले पाठ्क्रम समय की मांग बन गए हैं। आज के दौर में पत्रकारिता पूरी तरह प्रोफेशनल रूप ले चुकी है। इस बात को मानना पड़ेगा कि पत्रकारिता विशेषज्ञतामूलक पाठ्क्रम है। जब से यह विश्विद्यालय खुला है तब से हमारा लगातार यह प्रयास रहा है इसे फुल टाईम प्रोफेसनल कोर्स के रूप में चलाए और ऐसा करने में हम सफल भी रहे हैं। अब पत्रकारिता का एक नया युग आ गया है, मीडिया में अगल-अलग विशेषज्ञ क्षेत्र हो गए हैं और विद्यार्थियों का भी उसके प्रति काफी रूझान है। आने वाला समय माईक्रो विशेषज्ञता का होगा।

इंटरनेट आधारित वेब पत्रकारिता और कागजविहीन ई-पेपर का चलन जिस तेजी से बढ़ रहा है, क्या उसे देखते हुए कोई पाठ्क्रम शुरू किया गया है ?
विश्वविद्यालय द्वारा संचालित एम. एससी. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के पाठ्क्रम में इससे संबंधित कुछ कोर्स रखे गए हैं। इसके अलावा मास्टर ऑफ जर्नेलिज्म और मास्टर ऑफ मास कम्युनिकेशन के पाठ्क्रम में भी इलेक्ट्रानिक और वेब पत्रकारिता को शामिल किया गया है। विश्वविद्यालय इससे संबंधित विशेषज्ञता वाला पाठ्क्रम शुरू करने पर भी विचार कर रहा है।

क्या विश्वविद्यालय में पाठ्क्रम के हिसाब से पर्याप्त शिक्षक हैं ?
अभी मौजूदा विद्यार्थियों के हिसाब से तो शिक्षकों की संख्या पर्याप्त है। लेकिन आने वाले समय में हम कुछ नए पाठ्क्रम शुरू करेंगे और इसके मद्देनजर शिक्षकों की नियुक्ति के लिए हमने शासन से अनुमति मांगी है। जैसे नए पदों की अनुमति मिल जाती है उसके लिए भर्ती की प्रक्रिया शुरू कर दी जाएगी। जिस तरह पत्रकारिता में तेजी से बदलाव आ रहा है उसे देखते हुए शिक्षकों की भी एक नई पौध तैयार होनी चाहिए। मीडिया में अच्छे शिक्षक आएं, यह समय की मांग है।

यहां से निकल रहे भावी पत्रकारों का राष्ट्रीय स्तर पर क्या भविष्य है ?
अभी यह विश्वविद्यालय नया है। हमारा पहला बैच 2007 में निकला और यह गर्व की बात है कि इतने कम समय में यहां से निकले छात्र राष्ट्रीय स्तर के समाचार पत्रों और न्यूज चैनलों में अच्छे पदों पर कार्यरत हैं। इसके अलावा यहां से निकले कुछ विद्यार्थी शिक्षा के क्षेत्र में भी हैं। इस विश्वविद्यालय की एक छात्रा नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नालाजी में फेकल्टी प्रोफेसर है। यहां के विद्यार्थियों ने यूजीसी नेट की परीक्षा भी पास की और जल्द ही वे विद्यार्थी भी पत्रकारिता संस्थानों में शिक्षक के तौर पर दिखाई देगें। दो-तीन साल की अवधि में यहां के विद्यार्थियों ने अपनी अच्छी पहचान बनाई है।

विश्वविद्यालय के नए भवन का निर्माण किस स्थिति में है, इसकी निर्माण लागत कितनी है और कब तक नए भवन में स्थानांतरित होने की संभावना है ?
नए भवन के लिए शासन ने भाठागांव के पास काठाडीह में 62 एकड़ जमीन उपलब्ध कराई है। इस पर निर्माण कार्य तीन चरणों में होगा। प्रथम चरण में करीब 7 करोड़ रूपए का निर्माण कार्य पूरा कर लिया गया है। साफाई और जल आपूर्ति का काम अभी बचा है, जो जल्द ही पूरा कर लिया जाएगा। ऐसी उम्मीद है है कि दिसंबर तक इसका उद्घाटन हो जाएगा और नए शिक्षण सत्र नए भवन में शुरू होगा।

यहां के कुछ विद्यार्थियों का कहना है कि इतने महंगे पाठ्क्रम होने के बाद भी उन्हें शिक्षण की पर्याप्त सुविधाएं नहीं मिल रही हैं, क्या यह सही है ?
मेरे ख्याल से ऐसी बात नहीं है। विश्वविद्यालय द्वारा विद्यार्थियों को शिक्षण की अधिक से अधिक सुविधाएं देने का प्रयास किया जा रहा है। अगर देश के अन्य संस्थानों से तुलना करें तो यहां के पाठ्क्रम उतने महंगे नहीं हैं। हमने कम समय और सीमित संसाधनों में छात्रों को पर्याप्त सुविधाएं दिलाने की कोशिश की है। विश्वविद्यालय में विद्यार्थियों के लिए कम्यूटर लेब, लेग्वेज लैब, स्टूडियो आदि है। विद्यार्थियों द्वारा डाक्यूमेन्ट्री फिल्म बनाई जाती है, समाचार पत्र निकाला जाता है। कुल मिलाकर पाठ्क्रम से संबंधित सभी सुविधाएं मुहैया कराई गई हैं।

आप स्वयं रंगकर्मी, अभिनेता और निर्देशक रहे हैं, कुलपति बनने के बाद आप अपने इस शौक को किस तरह पूरा कर रहे हैं ?
मैं ये मानता हूं कि रंगकर्म से संबंधित होने के कारण मुझे यहां बहुत सी चुनौतियों से निपटने में आसानी हुई। इसका कारण है कि शौकिया रंगकर्म बहुत चुनौती भरा होता है। यहां की व्यवस्थाएं करने में, टीम भावना से काम करने में और लोगों से अपना तालमेल बनाने में मेरा अनुभव काफी काम आया। ये अलग बात है कि अब रंगकर्म पहले जैसा नहीं कर पाते लेकिन नाटक देखना और पढऩा जारी है। रंगकर्म से किसी न किसी रूप में संबंध बनाए हुए हैं। अगर व्यापक अर्थ में देखा जाए तो शेक्सपीयर का कहना एकदम ठीक है कि जिंदगी एक रंगमंच है और हम लोग अपनी भूमिका निभा रहे हैं।

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Monday, October 12, 2009

मुलाकात: वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. राजेन्द्र मिश्र से

डॉक्टर राजेन्द्र मिश्र प्रखर शिक्षाविद्, समालोचक, समीक्षक और वर्तमान दौर के प्रमुख साहित्यकारों में नक्षत्र के रूप में जाने जाते हैं। आज जब देश में साहित्यकारों की तादाद तेजी से बढ़ रही है उस भीड़ में वे सबसे अलग हैं। उनका यह साक्षत्कार मेरे द्वारा 09-09-09 को लिया गया था।
आपने अपनी साहित्यिक यात्रा की शुरूआत कब की ?
मेरा पहला लेख 1956-57 में नागपुर से प्रकाशित समाचार पत्र सारथी में छपा। इस पत्र के संपादक पंडित द्वारिका प्रसाद मिश्र थे। यह लेख संत कबीर पर केन्द्रित था। इसके पहले मैंने कुछ कविताएं भी लिखीं।
आप किन साहित्यकारों से प्रभावित हुए ?
कालेज की पढ़ाई के दौरान अंग्रेजी साहित्य का विद्यार्थी होने के कारण मैंने शेक्सपीयर और टीएस इलियट को पढ़ा। इन लेखकों से मैं काफी प्रभावित रहा। इसके अलावा पारिवारिक वातावरण भी ऐसा रहा, जिसने मुझे पढऩे को प्रेरित किया। मेरे पिताजी बिलासपुर में राघवेन्द्र राव लाइब्रेरी से पुस्तकें लाया करते थे। इस दौरान मैंने प्रेमचंद को पढ़ा। जब मैं छोटा था तब मेरे बाबा कहा करते थे, अगर तुम रामचरित मानस का एक कांड याद कर लोगे तो दो रूपए देंगे। उस समय दो रूपए काफी अहमियत रखते थे और बाबा के इस प्रलोभन से मैंने यह कठिन कार्य भी कर डाला। घर में मेरी मां रामचरित मानस का नियमित पाठ करती थीं। मेरे कान को दोहे-चौपाईयों का स्पर्श अपनी मां से मिला। बाद में अंग्रेजी में टीएस इलियट और हिंदी में अज्ञेय तथा गजानन माधव मुक्तिबोध का असर मुझ पर तब भी था और आज भी है।
आपको प्रभावित करने वाला कोई विशिष्ट लेखन या विवरण।
बीसवीं सदी की त्रासदी को टीएस इलियट ने वेस्ट लैण्ड में जिस तरह परिभाषित किया है, वह वास्तव में प्रभावित करने वाला है। वे बहुत ठोस और विवेकवान गद्य लिखते थे जो अद्भुत है। उनके अनुसार परंपरा दान में नहीं मिलती, इसे अर्जित करना पड़ता है। इसके अलावा तुलसीदास और निराला भी मेरी दृष्टि में महान भारतीय कवि या यू कहें संपूर्ण कवि थे।
आप साहित्य और संस्कृति को किस रूप में देखते हैं ?
मैं मानता हूं कि साहित्य अपने आप में संस्कृति का अपरिहार्य हिस्सा है। बगैर साहित्य के संस्कृति की कल्पना नहीं की जा सकती। संस्कृति वह है जो संस्कार देती है और साहित्य संस्कृति का रचनात्मक अवबोध है। मैं सोचता हूं कि भारतीय संस्कृति के केन्द्र में कवि रहा है। रामायण और महाभारत के बगैर भारतीय संस्कृति की कल्पना करना मुश्किल है। इन दोनों के लेखक कवि हैं। इस लिहाज से संस्कृति संवेदना का परिष्कार है और साहित्य इसका रचनात्मक माध्यम है। साहित्य अपने आप में सांस्कृतिक प्रक्रिया है। मैं सोचता हूं कि किसी भी समाज की अंतर्रात्मा और उसकी हलचल को उजागर करने का जो माध्यम है वह साहित्य है। साहित्य समाज का दर्पण नहीं है, जैसा आमतौर पर माना जाता है। दर्पण की सीमाएं हैं उसमें उतना ही देखा जा सकता है जितना आप दिखाई दे रहे हैं, जबकि साहित्य की संवेदना एक ओर जहां अतीत से रचनात्मक रिश्ता कायम करती है,वहीं उसमें भविष्य की परिकल्पना भी स्पंदित होती है, तो वह दर्पण कैसे हो सकता है ?
रचना के साथ आलोचना कितनी महत्वपूर्ण है ?
साहित्य अपने आप में समालोचना है। साहित्य या काव्य हृदय की मुक्ति है जबकि आलोचना बुद्धि की मुक्ति है। यानी रचना की तरह आलोचना भी एक महत्वपूर्ण साहित्यिक संस्था है। उसका काम केवल रचना को परिभाषित करना भर नहीं है बल्कि उसका एक बड़ा काम सभ्यता समीक्षा भी है। आचार्य रामचंद शुक्ल केवल साहित्यिक समीक्षक भर नहीं थे, उनके लिए संस्कृति और सभ्यता में आते हुए परिर्वतनों की पहचान भी उतनी ही महत्वपूर्ण थी। आलोचना सहयोगी प्रयास है।
साहित्य क्या व्यक्ति की अभिव्यक्ति है या समस्त की ?
साहित्य व्यक्ति के माध्यम से सार्वजनिक अभिव्यक्ति है। पूरी संस्कृति उस व्यक्ति की चेतना में छन के आगे आती है। साहित्य केवल अभिव्यक्ति ही नहीं है वह संप्रेषण भी है और संप्रेषण हमेशा दूसरों पर होता है।
बुनियादी तौर पर साहित्य में स्थानीयता के विवाद को आप किस रूप में देखते हैं ?
स्थानीयता सच्ची होनी चाहिए और सच्ची स्थानीयता में इतनी ऊ र्जा होती है कि वह स्थानीयता का अतिक्रमण करती है। तुलसीदास की जड़े अवधी में हंै, लेकिन वो सच्ची हैं इसलिए हर आदमी मरते समय रामचरित मानस का स्पर्श करना चाहता है। सच्ची स्थानीयता को 'लोकल इज ग्लोबलÓ के रूप में लिया जाना चाहिए।
कौन सी साहित्यिक बातें आपको अच्छी या बुरी लगती हैं ?
साहित्य में जो बुद्धि विरोधी बातें हैं वो मुझे कभी अच्छी नहीं लगती। मूखर्तापूर्ण व्यंग्य साहित्य मुझे पसंद नहीं। हिंदी में आज इतना खराब व्यंग्य साहित्य लिखा जा रहा है शायद संसार की किसी भी भाषा में उतना खराब साहित्य नहीं लिखा जा रहा है।
समकालीन हिंदी साहित्य आज किस दिशा में जा रहा है ?
वैसे भारतीय साहित्य अंगे्रजी में भी लिखा जा रहा है और कुछ लेखक वाकई बहुत अच्छा लिख रहे हैं। हर समय साहित्य में कचरा आता है, लेकिन पहचान सार्थक रचनाओं से करनी चाहिए। हिंदी में इस समय चार-पांच ऐसे कवि हैं, जो विश्व स्तर की कविताएं लिख रहे हैं। कहानी की बात करें तो कुछ अच्छे युवा कहानी लेखक सामने आ रहे हैं। लेकिन हमारा उपन्यास साहित्य कुछ कमजोर है। फिर भी जिस दृश्य में विनोद कुमार शुक्ल, अशोक वाजपेयी, कमलेश, विष्णु खरे, नामवर सिंह और कुंवर नारायण जैसे लेखक और आलोचक मौजूद हों, मैं उसे विपन्न नहीं मानता।
ऐसी क्या वजह है कि आपने अपने आप को कुछ समय से समेट लिया है या यूं कहें सरस्वती के मौन साधक बने हुए हैं ?
नहीं ऐसी बात नहीं है। अभी हाल ही में मुक्तिबोध पर आधारित मेरा काव्य संग्रह 'एक लालटेन के सहारेÓ छपकर आया है। फिलहाल मैं बीसवीं सदी की कविताओं को नए सिरे से पढ़ रहा हूं। हॉं ये बात जरूर है कि मैं बड़बोला नहीं हूं। वैसे अपनी अभिव्यक्ति के लिए साहित्य में एकाग्र होने की कोशिश जरूर करता हूं, ताकि बिखरी हुई अनुभूतियों को संग्रहित कर सकूं। साहित्य जीवन के प्रति विश्वास बनाए रखता है। आपने मौन होने की बात की तो व्यक्ति को मौन तो रहना ही चाहिए। मौन होकर बोलना चाहिए। बात करें सरस्वती कि तो सरस्वती की खूबी है कि वह अंत:शरीर हंै, दिखाई नहीं देती। दिखाई तो लक्ष्मी देती हैं। अब बारी आती है समेटने की तो अपने आप में समेटना ही तो साहित्य है। अगर समेटेंगे नहीं तो सब कुछ बिखर जाता है।
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मुलाकात गांधीवादी नेता केयूर भूषण से

छत्तीसगढ़ के शालीन सांसदों में केयूर भूषण की सादगी हमेशा सार्वजनिक चर्चा के केंद्र में रही। सहज-सरल स्वभाव के इस नेता ने दिखावे की जिंदगी को कभी तवज्जो नहीं दी। अस्सी साल से ज्यादा उम्र के इस गांधीवादी नेता की विशेषता है कि वे आज दिन भी साईकल से चलते हैं। स्वतंत्रता संग्राम में भी उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बासठवें स्वतंत्रता दिवस के मौके पर पत्रकार संजय दुबे द्वारा उनसे की गई बातचीत में आज के परिवेश में उनकी पीड़ा बरबस दिखाई देती है।
छत्तीसगढ़ में स्वतंत्रता आंदोलन की शुरूआत कब और कैसे हुई ?
छत्तीसगढ़ में अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष 1824 में तब शुरू हुआ जब परलकोट के जमीदार गैनसिंह ने बस्तर में सबसे पहले मोर्चा खोला। उस समय छत्तीसगढ़ अंग्रेजों की कंपनी सरकार और मराठों के संयुक्त सरकार के अधीन था । इसी दौरान बस्तर पर संयुक्त हमला हुआ, चंद्रपुर की तरफ से। दोनों फौजें आमने- सामने थीं। आबूझमाड़ क्षेत्र के आदिवासियों ने इस हमले का डटकर मुकाबला किया। इस हमले में सैकड़ों आदिवासी मारे गए, जिसका कोई रिकार्ड नहीं है। सबसे पहले विरोध करने वाले गैनसिंह को गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हीं के महल के सामने फांसी दे दी गई।
उसके बाद सन् 1857 के विद्रोह की आग छत्तीसगढ़ में भी भड़की। हालांकि छत्तीसगढ़ में इस आंदोलन की मूल वजह भूख रही। उसके पश्चात यहां भी स्वतंत्रता आंदोलन तेज होता गया और देश की स्वतंत्रता में छत्तीसगढ़ के लोगों ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसकी मूल वजह यहां की पीड़ा और स्वतंत्रता की भावना रही। इस आंदोलन की विशेषता यह थी कि इसमें बंजारों से लेकर राज परिवार तक के लोगों ने भाग लिया। अंग्रेजों के आने के बाद हीे छत्तीसगढ़ में अकाल पड़ा। इसके पहले यहां कभी अकाल नहीं पड़ा था। इस दौरान अंग्रेजी हुकूमत के विरोध में कई लोग उभर कर सामने आए, उसमें सबसे प्रमुख हैं सोनाखान के वीर नारायण सिंह। उस समय अकाल के कारण भूखमरी की स्थिति थी, अंगेज सरकार जनता के लिए कुछ नहीं कर रही थी और साहूकार लूट-खसोट पर उतारू हो गए थे। ऐसे में लोगों की पेट की भूख बुझाने के लिए वीर नारायण सिंह सामने आए। छत्तीसगढ़ में स्वतंत्रता आंदोलन की बुनियादी वजह भूख रही है। वीर नारायण सिंह ने न केवल लोगों को आनाज दिलाया बल्कि अपनी फौज बनाकर अंग्रेजों का मुकाबला भी किया। पकड़े जाने के बाद उन्हें फांसी दे दी गई। उधर हनुमान सिंह के नेतृत्व में फौज में बगावत हुई। अपने जनरल को मारने के बाद वे फरार हो गए, उनका आज तक पता नहीं चला। उनके सत्रह साथियों को रायपुर में, आज जहां पुलिस लाईन है, वहीं फांसी दे दी गई। लेकिन यह दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है कि आज तक उन शहीदों की याद में यहां एक स्तंभ तक नहीं लगा। यहां तक कि उनकी नाम पट्टिकाएं भी नहीं लगी हैं।
आप स्वतंत्रता आंदोलन से कैसे जुड़े ?
मेरा जन्म दुर्ग जिले में 1928 में हुआ और शुरूआती शिक्षा वहीं हुई। उसके बाद बिलासपुर आ गया। करीब 9 वर्ष उम्र रही होगी, जिस प्राइ्र्र्रमरी स्कूल में पढ़ता था वहां हमेशा स्वतंत्रता आंदोलन की चर्चा होती रहती थी। उस समय मेरा ज्यादातर समय मदारी के खेल देखने या सत्याग्रहियों का भाषण सुनने में बीतता था। पढ़ाई-लिखाई में मेरा ज्यादा मन नहीं लगता था, लेकिन मैं गीत जरूर लिखता था। गाहे-ब-गाहे भाषण भी दे लेता था। इसके बाद सन् चालीस-इकतालीस में मैं रायपुर आ गया। उस समय रायपुर में नगर पालिका के चुनाव हो रहा था। शहर में मुझे कई जगह ’’गरीबों का सहारा है ठाकुर हमारा -ठाकुर प्यारेलाल सिंह को वोट दें ‘‘ लिखा मिला। गरीबों का सहारा शब्द ने मुझे काफी प्रभावित किया और मैंने इस नारे को अपनी कापी के पन्नों में लिखकर घर-घर जाकर लोगों को बांटा। हालांकि उस वक्त तक मैं ठाकुर प्यारेलाल सिंह के बारे में नहीं जानता था। कुछ दिन बाद रायपुर में सत्याग्रह आंदोलन का भाषण सुनने का अवसर मिला और उसके बाद तो यह मेरी दिनचर्या बन गई। सन् 1942 के आंदोलन में तीन बार जेल भी गया।
आप सक्रिय राजनीति में कैसे आए ?
शुरूआती दिनों मैं कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ा और उसके बाद कांग्रेस में आया। सन् 1956 में छत्तीसगढ़ स्वतंत्र राज्य की मांग को लेकर रायपुर में एक सम्मेलन हुआ। इस सम्मेलन में करीब 50 हजार लोगों ने हिस्सा लिया और इसी दौरान छत्तीसगढ़ी महासभा का गठन किया गया। डाॅ. खूबचंद बघेल इसके अध्यक्ष बने और मैं इसका सह-सचिव था। यहीं से मेरे राजनीतिक जीवन की शुरूआत हुई। हालांकि मैं कांग्रेस का सीधे-सीधे सदस्य नहीं रहा।
आप राजनीति में किससे प्रभावित रहे ?
मैं आरंभ में कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रभावित था। हालांकि उस दौर के कई ऐसे नेता थे, जिन्होंने मुझे प्रभावित किया। मैं गांधीजी की विचारधारा से विशेष रूप से प्रभावित हुआ।
आज की राजनीति में कौन सी चीज आप को सबसे अधिक विचलित करती है ?
वर्तमान राजनीति में बहुत सी ऐसी चीजें हैं, जो मुझे विचलित करती हैं। छत्तीसगढ़ स्वतंत्र राज्य तो बन गया, लेकिन अभी भी छत्तीसगढ़ियों को शोषण से मुक्ति नहीं मिली। आज की राजनीति सत्तापरक हो गई है, व्यक्तिपरक नहीं रही। प्रदेश में उद्योगों को बसाने के नाम पर ग्रामीणों को उजाड़ा जा रहा है। मैं मानता हूं कि विकास में उद्योगों की महत्वपूर्ण भूमिका है, लेकिन ग्रामीण पीढ़ी-दर-पीढ़ी से जिस गांव, जिस घर में रहा रहा है, वहां से उसे उजाड़ कर नहीं।
नक्सल समस्या के समाधान के लिए आपने नक्सली नेताओं से बातचीत की सरकार से अनुमति मांगी थी। क्या आपको लगता है कि सरकार ने अनुमति न देकर ठीक नहीं किया ?
हो सकता है। आदिवासियों की समस्याओं ने नक्सलवाद को जन्म दिया है। आदिवासी आज जल, जंगल और जमीन के अपने अधिकार से वंचित हो रहे हैं। आज गांधीजी के ग्राम स्वराज के अवधारणा को अपनाने की जरूरत है। आदिवासियों को उनके अधिकारों से किसी भी हाल में वंचित नहीं रखा जाना चाहिए। ऐसा नहीं होने पर भूख, बेरोजगारी और हिंसा जन्म लेती है। बाहरी व्यापारियों ने यहां के आदिवासियों की जमीन हथियाने का नया तरीका निकाल लिया । अगर बस्तर की बात करें तो आज आलम ये है कि दूसरे राज्यों के व्यापारी यहां की ग्रामीण महिलाओं से विवाह कर, जमीन खरीद रहे हैं और उसके बाद वे महिलाएं मात्र नौकर बन कर रह जाती हैं। बस्तर मार्ग पर सड़कों के किनारे आदिवासियों के खेत देखने को नहीं मिलेंगे, अगर कुछ दिखेगा तो व्यापारियों के बड़े-बड़े कृषि फार्म। इसके अलावा मषीनों के अत्याधिक उपयोग पर भी रोक जरूरी है। जिन कामों को हाथ से किया जा सकता है, उसमें मशीनों का उपयोग नहीं होना चाहिए। जो मषीनें हाथ काट देती हैं, ऐसी मशीनें न लगाएं।
क्या नक्सली समस्या के समाधान के लिए आप कुछ प्रयास करने का सोच रहे हैं ?
जी हां। आगामी 2 अक्टूबर से गांधी विचार मंच की लगभग साढ़े आठ सौ टुकड़ियां विभिन्न ग्रामीण और नक्सल प्रभावित क्षेत्रों का दौरा करेंगी। ये दल ग्रामीण क्षेत्रों में रूकेंगे और ग्रामीण, नक्सली तथा राजनीतिक दलों से बात करेेंगे। इस दौरान ग्राम स्वराज पर विशेष जोर दिया जाएगा। क्योंकि ग्राम सभाओं के मजबूत और अधिकार संपन्न होने से भ्रष्टाचार कम होगा तथा ग्रामीण क्षेत्रों का सही विकास हो सकेगा।
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Sunday, October 11, 2009

मुलाकातः युवा कहानीकार आनंद हर्षुल से

(मेरे द्वारा २६-0७-09 को लिया गया साक्षात्कार)
आपने ने लेखन की शुरूआत कब की ?
मैंने लेखन की शुरूआत 1980 के आसपास की। पहले मैं कविताएं लिखा करता था। सन् 1984 में मेरी पहली कहानी छपी उसका शीर्षक था ’’बैठे हुए हाथी के भीतर लड़का’’। मेरा पहला कहानी संग्रह भी इसी शीर्षक के नाम से है।
क्या कविता लिखने का सिलसिला अब भी जारी है ?
नहीं। कहानी लिखने के बाद कविताएं लिखना छूट गईं। सामान्यः लोग लेखन की शुरूआत कविता से करते हैं, लेकिन बाद कई लोगों की दिशा बदल जाती है। वरिष्ठ साहित्यकार नामवर सिंह भी कभी कविता लिखा करते थे, लेकिन अब बहुत से लोग जानते भी नहीं होंगे कि वे कविता लिखते थे।
अभी तक आपके कितने कहानी संग्रह प्रकाशित हुए हैं ?
अभी तक मेरे दो कहानी संग्रह प्रकाशित हुए हैं। पहला कहानी संग्रह ’’बैठे हुए हाथी के भीतर लड़का’’ और दूसरा ’’पृथ्वी को चंद्रमा’’ है। इसके अलावा मेरा तीसरा कहानी संग्रह जल्द ही आने वाला है जिसका शीर्षक है ’’अधखाया फल’’।
आपने कभी उपन्यास लिखने के बारे में नहीं सोचा ?
उपन्यास लिखने की कोशिष तो की, लेकिन नौकरी के कारण उतना समय मिलता नहीं है। दूसरा कारण उपन्यास लिखने के लिए वैसा मन बन जाना जरूरी है। कई वर्षों से एक उपन्यास का बारह-तेरह पेज लिखकर बैठा हूं, लेकिन पूरा नहीं कर पा रहा हंू।
आपकी लिखी कोई कहानी, जो आपको विशेष पसंद हो ?
मेरी कुछ कहानियां मुझे अच्छी लगती हैं, लेकिन जरूरी नहीं कि वो मेरे पाठकों को भी उतनी ही अच्छी लगें। जैसे- ’’पृथ्वी को चंद्रमा’’, ’’रेगिस्तान में झील’’ आदि कुछ कहानियां हैं जो मुझे विशेष पसंद हैं। ऐसी क्या चीज है जो आपको कहानी लिखने के लिए प्रेरित करती है ?
कोई दृश्य जो मेरे हृदय को स्पर्श करे, लिखने को प्रेरित करता है। जैसे ’’रेगिस्तान में झील’’ कहानी लिखने की प्रेरणा मुझे राजस्थान में मिली। रेगिस्तान में डूबते सूरज की किरणों ने मुझे यह कहानी लिखने को मजबूर किया। कहानी लिखने के लिए पूरा कथानक होने की जरूरत नहीं, केवल एक दृश्य ही काफी होता है।
क्या आप मानते हैं कि लोग अब साहित्य से दूर हो रहे हैं ?
हां मैं मानता हूं कि साहित्य के पाठक कम हो रहे हैं। अब एक लेखक ही दूसरे लेखक को पढ़ता है। आज के दौर में एक पड़ोसी भी नहीं जानता कि उसके पड़ोस में कोई लेखक रहता है। पड़ोस में कोई लेखक रहता है इस बात का गर्व करने का कोई कारण नहीं है।
हिंदी साहित्य आज किस दिशा में जा रहा है ?
अगर कहानियों की बात करें तो मुझे लगता है इसकी स्थिति काफी अच्छी है। पिछले 10 सालों में काफी अच्छी कहानियां लिखी गई हैं, जो विश्व स्तर की ही हैं। इस बीच लेखकों की नई पीढ़ी भी सामने आई है। लेकिन मुझे लगता है कि हिंदी का प्रचार प्रसार विश्व स्तर पर उतना नहीं है जितना होना चाहिए। इसकी चिंता किसी को नहीं है। खासकर कविता की स्थिति कुछ ठहर सी गई है, वो अस्सी-नब्बे के दशक से आगे नहीं बढ़ पाई है। हालंाकि यह मेरा निजी विचार है।
हिन्दी कहानियों में क्या बदलाव आया है ?
मुझे लगता है कि हिंदी की नब्बे प्रतिशत कहानियां मुंशी प्रेमचंद के ईर्द-गिर्द ही घूमती हैं जबकि उसकी बिल्कुल जरूरत नहीं है। प्रेमचंद ने यथार्थ पर जिस तरह का काम किया है, उसके बाद अब यथार्थ के परे देखना भी जरूरी हो गया है कि कहीं हम अपने जीवन के आभासिय यथार्थों में तो नहीं जी रहे हैं। जिसे हम यथार्थ समझ रहे हैं वह सही में यर्थाथ है या नहीं।
कथा साहित्य में कल्पना और यथार्थ की भूमिका कितनी होती है ?
कथा साहित्य में कल्पना तो होती है, लेकिन उसकी जमीन में यथार्थ होता है। मनुष्य जो कल्पना करता है वह अपनी देखी और सुनी चीजों के आसपास ही करता है। इसलिए किसी कथा में जो कल्पना है वह यथार्थ के आसपास ही घटित हुई होती है। मेरा मानना है कि इसमें कल्पना ज्यादा होती है, लेकिन वह कल्पना जीवन के यथार्थ से ही जुड़ी होती है।
वर्तमान में आप क्या लिख रहे हैं ?
अभी मे कुछ कहानियां लिख रहा हूं। इनमें से कुछ कहानियां पत्रिकाओं में छपी हैं। इसके अलावा उपन्यास लिखने का मन भी बना रहा हूं।
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Sunday, September 6, 2009

मुलाकात:वरिष्ठ साहित्यकार विनोद कुमार शुक्ल से

(मेरे द्वारा २८-०७-०९ को लिया गया साक्षात्कार )
प्रश्नः आप लेखन से कैसे जुड़े ?
श्री शुक्लः ये बताना मुश्किल है। लिखने के बाद कोशिश की और इतने लंबे समय तक लिखने के बाद अब थोड़ा सा लगता है कि शायद मैं लेखन से जुड़ा हूं। कैसे को ढूंढना काफी मुश्किल है, लेकिन मैं कह सकता हूं कि उस समय का पारिवारिक वातावरण और घर में आती माधुरी, चांद, सरस्वती इत्यादी पत्रिकाओं का प्रभाव रहा जिसने मुझे लेखन से जुड़ने में मदद किया हो। उस समय जासूसी किताबें पढ़ना अश्लील माना जाता था और मैं अच्छी किताबें पढ़ने की कोशिश भर करता रहा।
प्रश्नः ऐसी कोई घटना या प्रभाव जिसने आप को लिखने को प्रेरित किया हो ?
श्री शुक्लः ऐसी कोई घटना नहीं होती जो लिखने को प्रेरित करे, बल्कि जीवन जीने में घटनाओं का वातावरण बनता है, जो हमारे अनुभव का कारण होता है और संवेदनाओं को कुरेदता है। समस्त प्राप्त हुए अनुभव के घटाटोप में लिखने से कोई दरार सी पड़ती दिखाई देती हो, जिसे उजाला दिखाई देता हो, तो लिखना अपने आप में फैले घटाटोप को हटाने का कर्म जैसा बनने लगता है।
प्रश्नः आपने ने लेखन की शुरूआत कविता से की या गद्य से ?
श्री शुक्लः कविता से। शुरू-शुरू में कविता लिखने से ऐसी संपूर्णता का बोध होता है जिसे थोड़े में समेट लिया गया हो। कविता लिखना संभवतः शुरूआत में जल्दबाजी जैसी है। ये जल्दबाजी समेटने की जल्दबाजी होती है, परंतु बाद में कविता लिखना बहुत कठिन लगने लगता है। और मैं ये मानता हूं कि कविता लिखने की कठिनाई बढ़ने के बाद गद्य का लिखना बहुत स्वभाविक तरीके से शुरू हो जाता है, लेकिन तब भी मैं बार-बार कहता हूं कि गद्य के रास्ते में बार-बार कविता मुझे मिल ही जाती है। यह लेखन की ऐसी शुरूआत होती है जो अपने घर की छांव में शुरू होकर जीवन के लंबे उजाड़ में प्रवेश करती है। दरअसल, यह उबड़-खाबड़ लंबा उजाड़ गद्य का होता है, जो जिन्दगी की तरह होता है और कविता इस उजाड़ में एक्का-दुक्का पेड़ की छाया की तरह होती है, जिसके नीचे ठहरकर, सांस लेकर फिर आगे बढ़ते हैं।
प्रश्नः भारतीय साहित्य और छत्तीसगढ़ी साहित्य आज किस दिशा में जा रहा है ?
श्री शुक्लः भारतीय साहित्य आज विष्व स्तर पर है। छत्तीसगढ़ी की बात करें तो इसमें मेरी जानकारी थोड़ी है, अभी यह केवल होने- होने की स्थिति में है।
प्रश्नः आपके द्वारा लिखे गए उपन्यास ’’नौकर की कमीज’’ को काफी ख्याति मिली। क्या आप मानते हैं कि यह आपकी सबसे अच्छी कृति है ?
श्री शुक्लः मेरे मानने न मानने का कोई मतलब नहीं है। वैसे ’’खिलेगा तो देखेंगे’’ उपन्यास सबसे कम चर्चित रहा लेकिन यह मुझे अपने करीब अधिक लगता है।
प्रश्नः क्या आपको लगता है कि आज की युवा पीढ़ी साहित्य से दूर होती जा रही ?
श्री शुक्लः हां। अपने युवपन को याद कर जब मैं सोचता हूं तब लगता है कि साहित्य जो शुुरू से उपेक्षित रहा, अब और अधिक उपेक्षित हो गया है। दरअसल, जो साहित्य होता है वह बहुत ही गिने-चुने लोगों के बीच सिमटा हुआ है, शायद हाशिए में। साहित्य सबसे ज्यादा हाशिए में है, सामाजिक तौर पर भी राजनीतिक तौर भी। उत्कृष्टता को राजनीति कभी नहीं बचाती, क्योंकि थोडे़ से लोगों की होती है और जो उत्कृष्ट नहीं है, बल्कि खराब है वह जाने-अनजाने बहुमत के साथ होता है। हमारा प्रजातंत्र जिस तरह का है, उसमें बहुमत की अच्छाई थोड़ी है और राजनीति में बहुमत की बुराई को सत्ता में आने का हथियार बनाया गया है।
प्रश्नः वर्तमान में क्या आप कोई उपन्यास आदि लिख रहे हैं ?
श्री शुक्लः फिलहाल मैं किशोरों के लिए एक उपन्यास लिख रहा हूं, जो पूरा होने की स्थिति में है। इसके अलावा कविता संग्रह की पांडुलिपियों को भी तैयार कर रहा हूं। दो-तीन उपन्यास अधूरे पड़े हैं, मालूम नहीं पूरे होंगे कि नहीं।
प्रश्नः एक रचना के पूरे होने पर कैसा महसूस होता है ?
श्री शुक्लः रचना कभी पूरी नहीं होती। एक स्थिति में आकर रचनाकार को लगता है कि हो गया। रचना कि ऐसी स्थिति होती है जहां एक स्थिति के बाद वह ठहर जाती है, खुद ठहरी हुई होती है, और उसका लिखना ठहर जाता है, शायद ऐसी ही स्थिति रचना के समाप्त होने पर होती हो। जब दूसरी रचना शुरू होती है, यद्यपि ठहराव के बाद अलग हो जाती है, हालांकि, उसे पहले लिखे हुए का आगे बढ़ना ही मानना चाहिए। इसलिए, एक कविता संग्रह को एक कविता की तरह ही पढ़ा जाना चाहिए और लेखक के समग्र को, एक रचना ही मानना चाहिए।
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Saturday, September 5, 2009

स्टांप पेपर पर बिक रही हैं औरतें !

सरकार की ओर से देश में अभूतपूर्व विकास होने का दावा किया जा रहा है तो दूसरी तरफ बुंदेलखंड की स्थिति दिनोंदिन भयावह होती जा रही है। हालात यहां तक पहुंच गए हैं कि इस इलाके में औरतों की खरीद-फरोख्त भी होने लगी है। जिस्म के सौदागर बकायदे स्टांप पेपर पर इनका सौदा कर रहे हैं। एक निजी चैनल की मानें तो इस इलाके में तमाम ऎसे दलाल सक्रिय हैं, जो महिलाओं की खरीद-फरोख्त का धंधा कर रहे हैं। मालूम हो कि बुंदेलखंड इलाका कई वर्षो से सूखे की चपेट में है। इस बार स्थिति भयावह हो गई है। निजी चैनल की मानें तो सविता (परिवर्तित नाम) नामक युवती को किसी और ने नहीं बल्कि उसके पति ने ही बेच दिया। कीमत लगाई आठ हजार रूपए। सौदा पक्का करने और इस सौदे को कानूनी दर्जा दिलाने के लिए वो बाकायदा खरीदार के साथ कोर्ट पहुंचा। स्टांप पेपर पर लिखापढी हो गई, लेकिन मौका मिलते ही सविता वहां से भाग निकली और अब पुलिस की अभिरक्षा में है। सविता कहती है उसने हमें बेच दिया है। पुलिस अधिकारी आरके सिंह ने बताया कि एक आदमी गुलाब इस महिला को लेकर शादी के लिए आया था। इसके पति ने इसको गुलाब को बेच दिया।
सविता बुंदेलखंड की उन हजारों औरतों में से एक है जिनका सौदा खुद अपनों ने ही कर डाला। यह तो एक मामला है, जो पुलिस और मीडिया तक पहुंचा है। गुपचुप तरीके से यह धंधा जोरों पर चल रहा है। इसे पुलिस भी स्वीकार करती है। एक वरिष्ठ अधिवक्ता ने नाम न प्रकाशित करने की शर्त पर बताया कि इस इलाके में 10 से 12 हजार में यह कारोबार च ल रहा है। औरतों का सौदा करने वालों ने इसे नाम दिया है विवाह अनुबंध। शादी के ऎसे ही एक एग्रीमेंट के मुताबिक पहले से ही शादीशुदा कुंती (परिवर्तित नाम) की हरिप्रसाद नाम के शख्स से दोबारा शादी हो रही है। कुंती की उम्र महज 23 साल है जबकि हरिप्रसाद लगभग उसकी दुगनी उम्र 40 साल का है। कुंती के दस्तखत को देखें तो ये भी साफ हो जाएगा उससे एक अक्षर भी सही से नहीं लिखा गया। वकील कालीचरण बताते हैं कि वो दस रूपये के स्टांप पर एक कंप्रोमाइज लिख दिया जाता है। ये भी जरूरी नहीं कि जिसने एक बार औरत खरीदी, वो उम्रभर उसे अपने साथ रखे। कुछ दिनों पहले मध्य प्रदेश के नेवाडी थाने की पुलिस ने ऎसी ही तीन औरतों को बचाया था। पुलिस ने औरतों की ओर से बताए गए चार दलालों को भी धर दबोचा था।

Friday, September 4, 2009

ऐसे भी मिलती है जॉब


क्या आप बेरोजगार हैं? जगह-जगह बायोडाटा बांटते-बांटते थक गए हैं। आश्सवासनों के साए मे चल रही नौकरी की तलाश अब मायूसी में बदलने लगी है। तो एलेक्स से सीख लीजिए। हम वह दोहराने को नहीं कह रहे जो 23 वर्षीए एलेक्स कियर्न्स ने किया। बल्कि कुछ ऐसा करने को कह रहे हैं जिससे लोगों का ध्यान आप पर जाए। क्योंकि ऐसे भी मिलती है नौकरी। लंबे समय से जॉब की तलाश करते-करते एलेक्स थक गया था। वह स्वानसी यूनिवर्सिटी से फ्रेंच और इटालियन भाषा में स्नातक था। उसने एक प्रतियोगिता में ट्रेफल्गर स्क्वॉयर के एक हिस्से पर एक घंटे का वक्त बिताने का कांटेस्ट जीता था। अधिकतर लोग इस समय का इस्तेमाल किसी इवेंट के प्रमोशन के लिए करते हैं। लेकिन नौकरी की आस में बैठे एलेक्स को जब सारे दरवाजे बंद दिखने लगे तो उसने यहां अपनी ‘कार्यक्षमताओं’ का विशाल प्रदर्शन कर डाला। एलेक्स ने ट्रेफल्गर स्क्वॉयर पर अपने बायोडाटा का एक बड़ा पोस्टर बनाकर टांग दिया। इस पर उसने लिखा था ‘सेव ए ग्रेजुएट, गिब मी ए जॉब।’ आश्चर्यजनक रूप से उसका यह टोटका काम कर गया। एक अंतरराष्ट्रीय बिजनेस डेवलेपमेंट ग्रुप ने उससे संपर्क किया। एक टेलीफोन साक्षात्कार के बाद उसे अंतिम 16 के रूप में कंपनी में बुलाया गया। जहां वह जॉब पाने वाले तीन भाग्यशालियों में से एक था। अब एलेक्स कंपनी के लंदन कार्यालय में सेल्स एक्जीक्यूटिव के तौर पर काम कर रहा है। उसका काम ब्रिटेन और अन्य देशों की कंपनियों को परामर्श उपलब्ध कराना है। इसके बाद उसे एक एड कंपनी ने भी जॉब ऑफर की। दक्षिण पश्चिम लंदन के किंगस्टन में रहने वाले केयर्न्स के मुताबिक, ‘यह खुद को बेचने का शानदार मौका था और मैंने इसे गंवाया नहीं।’

Thursday, September 3, 2009

हादसों में खोये कई प्रतिभाशाली नेता

भारतीय राजनीति के इतिहास पर अगर नजर डालें तो संजय गांधी, राजेश पायलट, माधव राव सिंधिया, जी एम सी बालयोगी, आ॓ पी जिंदल, साहिब सिंह वर्मा, सुरेन्द्र सिंह जैसे कई प्रतिभाशाली राजनेता हादसों के चलते असमय काल के गाल में समा गए। इसी कड़ी में इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, ललित नारायण मिश्र, दीन दयाल उपाध्याय का नाम भी आता है जिनकी आतंकवादी हिंसा या रहस्यमय स्थिति में मौत हुई। दुर्घटना का शिकार होने वाले नेताओं में महत्वपूर्ण नाम पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के पुत्र एवं कांग्रेस नेता संजय गांधी का है जिनकी 29 वर्ष पहले दिल्ली के सफदरजंग हवाई अड्डे पर ग्लाइडर दुर्घटना में मौत हो गई थी। इसी कड़ी में कांग्रेस के प्रतिभाशाली नेता राजेश पायलट आते है जिनकी 11 जून 2000 को जयपुर के पास सड़क हादसे में मौत हो गई थी। पेशे से पायलट राजेश ने अपने मित्र राजीव गांधी की प्रेरणा से राजनीति में कदम रखा और राजस्थान के दौसा लोकसभा क्षेत्र से निर्वाचित हुए। पालयट एक महत्वपूर्ण गुर्जर नेता के रूप में उभर कर सामने आए थे। उनके नरसिंह राव सरकार में गृह राज्य मंत्री रहते हुए तांत्रिक चंद्रास्वामी को जेल भेजा गया था। माधव राव सिंधिया एक और महत्वपूर्ण नाम है जो असमय दुर्घटना का शिकार हुए। सिंधिया ने अपने राजनैतिक कैरियर की शुरूआत 1971 में की थी जब उन्होंने जनसंघ के सहयोग से निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में गुना लोकसभा क्षेत्र से चुनाव मेें जीत दर्ज की थी। बहरहाल, 1997 में वह कांग्रेस में शामिल हो गए और 1984 में उन्होंने भाजपा के वरिष्ठ नेता अटल बिहारी वाजपेयी को ग्वालियर लोकसभा क्षेत्र से पराजित किया। सिंधिया ने विभिन्न सरकारों में रेल मंत्री, नागर विमानन मंत्री और मानव संसाधन विकास मंत्री का दायित्व संभाला। लेकिन 30 सितंबर 2001 को विमान दुर्घटना में उनकी असमय मौत हो गई। तेदेपा नेता जी एम सी बालयोगी भी असमय दुर्घटना का शिकार हुए जब तीन मार्च 2002 को आंध प्रदेश के पश्चिमी गोदावरी जिले के कैकालूर इलाके में उनका हेलीकाप्टर दुर्घटनाग्रस्त हो गया। बालयोगी सबसे पहले 10वीं लोकसभा में तेदेपा के टिकट पर चुन कर आए। उन्हें 12वीं और 13वीं लोकसभा का अध्यक्ष चुना गया। उघोगपति तथा राजनेता आ॓ पी जिंदल भी दुर्घटना का शिकार होने से असमय भारतीय राजनीति के पटल से ओझल हो गए। जिंदल आर्गेनाइजेशन को उघोग जगत की बुलंदियों पर पहुंचाने वाले आ॓ पी जिंदल हरियाणा के हिसार क्षेत्र से तीन बार विधानसभा के लिए चुने गए और उन्होंने प्रदेश के उुर्जा मंत्री का दायित्व भी संभाला। 31 मार्च 2005 को हेलीकाप्टर दुर्घटना में उनकी असमय मौत हो गई। भाजपा के प्रतिभावान नेता साहिब सिंह वर्मा का नाम भी इसी कड़ी में आता है। वर्ष 1996 से 1998 तक दिल्ली के मुख्यमंत्री का पद संभालने वाले वर्मा 1999 से 2004 तक लोकसभा के सदस्य और केन्द्रीय मंत्री भी रहे। भाजपा के उपाध्यक्ष पद का दायित्व संभालने वाले साहिब सिंह वर्मा की 30 जून 2007 को अलवर॥दिल्ली राजमार्ग पर सड़क दुर्घटना में मौत हो गई। इसी कड़ी में इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, ललित नारायण मिश्रा, दीन दयाल उपाध्याय का नाम भी आता है जिनकी आतंकवादी हिंसा या रहस्यमय परिस्थिति में मौत हुई। 31 अक्तूबर 1984 को इंदिरा गांधी की अपने ही सुरक्षाकर्मियों ने हत्या कर दी थी। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी भी आतंकवादी हमले के शिकार हुए जब श्रीपेरम्बदूर में चुनावी सभा के दौरान लिट्टे आतंकवादियों ने उनकी हत्या कर दी। हालांकि उधर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के राजनीतिक सचिव अहमद पटेल, केंद्रीय मंत्री पृथ्वीराज चव्हाण और शैलजा उस समय बाल..बाल बच गए थे जब 2004 में गुजरात में खाणवेल के पास उन्हें ले जा रहे हेलीकाप्टर का पिछला हिस्सा क्षतिग्रस्त हो गया था।

Sunday, August 30, 2009

नशे की गिरफ्त में बचपन


छत्तीसगढ़ में युवाओं के साथ-साथ बच्चों में भी नशीली दवाओं की लत बढ़ रही है। यहां हर माह ऐसी दवाओं का करोड़ों का कारोबार है, जिनका उपयोग कुछ नशे के लिए किया जाता है। दवा व्यवसायी डाक्टर के बिना प्रिस्क्रिप्शन के ऐसी दवा किसी के भी हाथ में थमा देते हैं, जिससे दवा बेचने वालों के वारे-न्यारे तो होते ही हैं, बच्चे और युवा नशे की गिरफ्त में फंसकर अपनी जिंदगी तबाह करने की राह में चल पड़ते हैं। नशीली दवा बेचने वाले हर महीने लाखों का वारे-न्यारे कर रहे हैं। दवाओं के सौदागर युवा वर्ग को ही नहीं, बल्कि बच्चों को भी तबाह कर रहे हैं। शहर की कई दुकानों में ये दवाएं डाक्टर के बिना प्रिस्क्रिप्शन के बेची जा रही हैं। नशीले इंजेक्शन का एक एंपुल ब्लैक में एक सौ से एक सौ पचास रुपए के बीच बिकता है, जबकि दवा मार्केट में इसकी कीमत सिर्फ १२ रुपए है। गली-मोहल्लों के पान ठेलों पर यह आसानी से मिल जाता है। शहर के कई इलाकों में ठेलों और घरों में यह कारोबार धड़ल्ले से चल रहा है और पुलिस हाथ पर हाथ धरे बैठी रहती है। उत्तेजक गोलियों के प्रभाव में मदहोशी छाने के बाद लूट, चाकूबाजी अथवा हत्या तक कर डालते हैं। ताज्जुब है कि नशीली दवाओं का कारोबार तेजी से फैल रहा, लेकिन इनके सौदागरों पर पुलिस अथवा प्रशासन काबू पाने में नाकाम रहा है। नशीली दवाओं की आसान और सस्ती उपलब्धता ने स्थिति को और भी भयावह बना दिया है।

Saturday, August 29, 2009

नक्सलियों का नया फरमान.....

एक ओर जहाँ पुलिस के नव आरक्षक छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित इलाके में जाने से इंकार कर रहें हैं, भले ही उनकी नौकरी क्यों न चली जाये। वहीँ नक्सालियों के एक नए फरमान ने बस्तर इलाके में पुलिस की परेशानियाँ और बड़ा दी है। हाल ही में घुर नक्सल प्रभावित क्षेत्र नारायणपुर जिले में नक्सालियों ने कुछ मार्गो पर यात्री वाहनों की तलाशी ली और धमकी दी की जिस वाहन में पुलिसकर्मी रहेंगे उसे उड़ा दिया जायेगा । इस बात की पुष्टि बस्तर रेंज के आईजी टी लान्ग्कुवेर ने भी की है। पुलिस सूत्रों के अनुसार इस धमकी के बाद नारायणपुर के अंदरूनी मार्गो पर बस मालिकों ने बसों में पुलिस जवानों को बिठाने से इनकार कर दिया है। इसके चलते पुलिस के जवान अपनी पदस्थापना वाली जगह और छुट्टी पर घर नहीं जा पा रहे हैं। जिससे बस मालिकों, चालकों, परिचालकों और पुलिस के जवानों के मध्य टकराव की स्थिति पैदा हो गई है। चालकों तथा परिचालकों का कहना है कि नक्सली चेतावनी के बाद वे बस में पुलिस जवानों को नहीं बिठाएंगे। जबरन बैठने की स्थिति में हम बस ही नहीं चलांएगे। यदि उन पर दबाव डाला गया तो नौकरी छोडकर मजदूरी भी कर लेंगे। हालांकि पुलिस ने पर्याप्त सुरक्षा का आश्वासन दिया है। इस मामले में बस मालिकों को पुलिस तथा नक्सलियों का दोहरा दबाव झेलना पड रहा है।
नक्सालियों की इस तरह की हरकत क्या जायज है ? अपनी राय जरूर दे -

Thursday, August 27, 2009

...तो आधी आबादी भूखे पेट सोएगी

अगर ग्लोबल वार्मिंग इसी तरह से बढ़ती रही तो इस सदी के अंतिम वर्षों में दुनिया की आधी आबादी भूखे पेट सोने को मजबूर हो जाएगी। वैज्ञानिको की मानें तो न केवल पानी के स्रोत सूख जाएंगे, बल्कि शीतोष्ण व समशीतोष्ण क्षेत्र की ज्यादातर उपजाऊ जमीन में बढ़ते तापमान से दरारें पड़ जाएंगी और वह बंजर में तब्दील हो जाएगी। इतना ही नहीं चावल और मक्का की उपज आज की तुलना में मात्र 40 प्रतिशत रह जाएगी। वैज्ञानिकों के अनुसार यदि ग्लोबल वार्मिंग इसी तरह बढ़ती रही तो दुनिया के कई देशों के साथ ही भारत के कोलकाता, गोवा और मुंबई तथा गुजरात के तटवर्ती शहरों का अस्तित्व तक मिट सकता है। प्रतिष्ठत जर्नल ‘सांइस’ की ताजा शोध रिपोर्ट के मुताबिक जलवायु परिवर्तन का सबसे ज्यादा असर जिन क्षेत्रों में पड़ेगा उनमें दक्षिण अमेरिका से उत्तरी अर्जेंटीना, दक्षिणी ब्राजील से समूचा उत्तर भारत, दक्षिणी चीन से पूरा दक्षिण आस्ट्रेलिया और पूरा अफ्रीका शामिल है। वैज्ञानिकों के अनुसार शीतोष्ण और समशीतोष्ण क्षेत्र में अभी तीन अरब आबादी है जो इस सदी का अंत होते-होते दोगुनी हो जाएगी। इस क्षेत्र की ज्यादातर आबादी कृषि आधारित है । शोध के अनुसार तेजी से बढ़ रहे तापमान से इस क्षेत्र के ज्यादातर जल स्रोत सूख जाएंगे और जमीन की नमी खत्म होने से उपजाऊ जमीन में दरारें पड़ने लगेंगी। इसके बाद यह जमीन बंजर में तब्दील हो जाएगी। ऊंचे तापमान से इन क्षेत्रों की मक्का और चावल की फसल 60 प्रतिशत तक समाप्त हो जाएगी। वैज्ञानिकों का मानना है कि ग्लोबल वार्मिंग के चलते नयी सदी की शुरूआत होते-होते 10 करोड़ आबादी को वहां से भोजन उपलब्ध नहीं होगा जहां से उसे अभी मिल रहा है। वैज्ञानिकों का यह शोध 23 ग्लोबल क्लाइमेट मॉडल के अध्ययन पर आधारित है। इससे निकले आंकड़ों से जो तस्वीर उभर का आ रही है वह पूरी दुनिया के लिए भयावह है। इसके अनुसार शीतोष्ण और समशीतोष्ण क्षेत्र का तापमान उस स्तर से भी ज्यादा हो जाएगा जितना आज तक कभी नहीं हुआ। अभी तक का अधिकतम तापमान वर्ष 2003 में पश्चिमी यूरोप में हुआ था। तब वहां गर्म हवाओं के चलने से न केवल 60 हजार से ज्यादा मौतें हुई थीं बल्कि 90 प्रतिशत तक फसल नष्ट हो गई थी। इस स्थिति से निपटने के लिए वैज्ञानिकों ने जो उपाय सुझाए हैं उसमें फसलों की ऐसी प्रजातियां विकसित करने की संस्तुति की गयी है जो ऊंचे तापमान में भी उगाई जा सके।
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मैगजीन में दिखेंगे वीडियो विज्ञापन

तकनीक का जमाना अपने ‘हासिलों’ पर इतरा रहा है। आए दिन ऐसे प्रयोग हो रहे हैं जिसके बारे में सिर्फ कल्पना की जा सकती है। ऐसा कैसे हो सकता है कि कंपनियां अपने उत्पादों की मार्केटिंग के लिए आधुनिक तकनीक को न आजमाएं। अब ब्राडकॉस्टिंग नेटवर्क सीबीएस को ही लीजिए। वह अपनी एक मैगजीन में ऐसा प्रयोग करने जा रहा है, जो आने वाले समय में विज्ञापन की दुनिया में नजीर बन जाएगा। इस ग्रुप की एक पत्रिका ‘एंटरटेनमेंट वीकली’ के सितम्बर अंक में एक वीडियो विज्ञापन शाया होगा। यह ठीक वैसा ही है जैसा ‘हैरी पॉटर’ सीरीज की फिल्मों में नजर आता है। हैरी के अखबार में तस्वीरें अचानक चलने फिरने लगती हैं। अब हकीकत में भी कुछ ऐसा ही होने वाला है। दरअसल, इस पत्रिका में एक पतली वीडियो स्क्रीन लगी होगी, जिसमें विज्ञापन फिल्में होंगी। यह स्क्रीन मोबाइल के आकार की होगी और मैगजीन खोलते ही चलने लगेगी। इसमें वही तकनीक इस्तेमाल की गई है, जो ‘म्यूजिकल ग्रीटिंग कार्ड्स’ में होती है। यानी चिप लगी स्क्रीन को बैटरियों की मदद से चलाया जाएगा। शुरूआत में इसमें सीबीएस के कार्यक्रमों और पेप्सी के विज्ञापन होंगे। पहले चरण में इसे मैग्जीन की चुनिंदा प्रतियों में लगाया जाएगा। यह प्रतियां लास एंजिल्स और न्यूयॉक में बिक्री के लिए उपलब्ध होंगी। हालांकि इस तरह से विज्ञापन देना अन्य तरीकों की तुलना में बहुत महंगा है। लेकिन बढ़ती प्रतिस्पर्धा वाले बाजार में विज्ञापन कंपनियां जानती हैं कि उत्पाद को लोकप्रिय बनाने के लिए कौन-कौन से नुस्खे आजमाए जा सकते हैं। इसलिए वे नए प्रयोग करने से नहीं चूकते।
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Wednesday, August 19, 2009

कवितायेँ

------मन का भरोसा नहीं-------
सुबह-सुबह का वक्त था
सोने में मैं मस्त था,
तभी सुनाई पड़ी कान में
मोबाइल की रिंग ---।
फ़ोन उठाकर मैंने पूछा,
हेलो ----कौन ?
बधाई, आपने की
दस करोड़ की कमाई .
तंत्रा टूटी, नींद हुई काफूर
बिस्तर से मैं उठ बैठा
कहा - आप श्रीमान कौन ?
जवाब मिला -
आपका सेल बना लक्की नंबर,
मिलेगा अब इनाम । बस
देनी होंगी कुछ जानकारियाँ ।
झट -पट बत्लादाला,
मैंने अपना पूरा बायोडाटा
लेकिन, अगले वाकये से
उड़ गए मेरे होश ।
अजनबी प्रोसेस बता रहा था,
पैसे लेने से पहले
कहाँ-कहाँ देने होंगें नोट
यह जानकारी सुना रहा था।
कुल मिलाकर
बस पाँच लाख की बात है
इसके बाद होंगें आप करोड़पति
लगेगा दौलत का अम्बार।
अब उसे झेलना ,
मेरे बस की बात नही थी
पाँच लाख की कौन कहे
पाँच हजार भी तो पास न थे ।
फ़ोन को किया डिस्कनेक्ट
सो गया मैं फ़िर से
सोच रहा था मैं
पाँच लाख होते तो
मैं आज करोड़पति होता ।
लेकिन तभी दिमाग की बत्ती जली
लगा यह धोखाधडी का
नया तरिका तो नहीं
अच्छा हुआ पाँच लाख नही थे,
मन का कुछ भरोसा नहीं -
मन का कुछ भरोसा नहीं ॥
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---------मेरे पाषाण देव ------------
मै नित्य नीर से सींच रहा,
यह सोच कभी तो पिघलोगे ।
मैंने पीपल की जड़ में रख
तुमको क्या सुन्दर छाँव दिया।
मत शुष्क बना दे तुम्हें धूप
इसलिए कूंप का ठांव दिया,
तुलसी का बिरवा रोप दिया
दल तोड़ कभी तो निकलोगे।
मैं नित्य नीर से ------
तुम दीख पड़े जब सड़क बीच
श्रद्धा से मैंने थाम लिया,
जब सोचा चोट हथौड़े की
तो हर-हर शंकर का नाम लिया,
सेवा में हूँ, पत्थर सुभाव
यह सोच कभी तो बदलोगे
मैं नित्य नीर से -----
तुम आशुतोष अवढरदानी
भोले बाबा कहलाते हो
पर मुझे समझ कर भस्मासुर
शायद इतना भय खाते हो,
मैं भी हूँ पीछे पड़ा हुआ
तुम लाज कभी तो रख लोगे
मैं नित्य नीर से -----
तुम हे मेरे पाषाण - देव !
सचमुच पत्थर के पत्थर हो
पत्थर ही है आवास- भूमि
पत्थर- कन्या के प्रियवर हो,
मैं भी पत्थर सा अडा हुआ
घर छोड़ कभी तो निकलोगे
मैं नित्य नीर से -----
पत्थर का तन यदि छोड़ मुझे
चैतन्य रूप दिखलाओगे
मत डरो किसी वैज्ञानिक की
प्रयोगशाला में जाओगे,
इसलिए आज समझाता हूँ
डर छोड़ कभी तो सम्हलोगे
मैं नित्य नीर से -----
तुम शायद भष्टाचार विरोधी
आंदोलनों से डरते हो
इसलिए समर्पित तुच्छ भेंट
स्वीकार न मेरी करते हो,
धीरज इसलिए बाँधता हूँ
यह भेंट कभी तो धर लोगे
मैं नित्य नीर से ----
दुनियाँ मुझको पागल समझे
मैं नित्य तुम्हें नहालाउगा
विश्वास- नीर से सींच-सींच
पत्थर का हृदय गलाउंगा,
मुझको किंचित संदेह नहीं
दुख-दर्द कभी तो हर लोगे
मैं नित्य नीर से सींच रहा
यह सोच कभी तो पिघलोगे ।
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बेटियों की रक्षा सिन्दूर से

सुहागिनों का प्रतीक सिंदूर यदि कुंवारी लड़कियां भी लगाने लगे तो इससे बड़ी हैरत की बात और क्या होगी। आप मानें या न मानें लेकिन छत्तीसगढ़ के कुछ इलाकों में ऐसा हो रहा है। बिन ब्याही लड़कियों की रक्षा के लिए परिजनों को यह कदम मजबूरी में उठाना पड़ रहा है।
दरअसल, नक्सलियों ने अपनी तादात बढाने के लिए इन दिनों सदस्यों की भर्ती अभियान चला रखा है और वे गावों में बैठकें कर हर घर से लड़कों और लड़कियों की मांग कर रहे हैं । उनकी मांग नहीं मामने पर परिणाम भुगतने की धमकी दी जाती है। इससे घबराये लोगों को वह सब कुछ करना पड़ रहा है, जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती। सबसे बुरा हल नक्सल प्रभावित धमतरी जिले का है। यहाँ के सिहावा और नगरी क्षेत्र के लोग नक्सलियों से बेटियों को बचाने के लिए उन्हें चोरी- छिपे दूर रिश्तेदारों के यहाँ भेज दे रहे है या उन्हें साड़ी पहनाकर उनकी मांग में सिंदूर लगवा रहे है, ताकि वे उन्हें शादी-शुदा बता सकें। नक्सली शादी-शुदा महिलाओं को तंग नहीं करते, यही वजह है की लोग बेटियों को सुहागिनों के चोलें में छिपाकर घर पर रख रहे हैं।
सूत्रों की मानें तो अब तक नगरी और सिहावा क्षेत्र के कई गावों से काफी संख्यां में युवक-युवतियां लापता हो चुकें है। इसकी जानकारी पुलिस को भी है लेकिन वह कोई ठोस कदम नहीं उठा पा रही है। गौरतलब है की पिछले दिनों नक्सली कमांडर रमन्ना ने इस इलाके में पहुंचकर अलग-अलग दलम कमांडरों से मुलाकात की थी। इसके बाद से इस क्षेत्र में नक्सलियों ने अपनी गतिविधियाँ तेज कर दीं। इसी का परिणाम है की स्वतंत्रा दिवस पर कई गावों में ध्वाजारोहण नहीं हुआ। बताया जा रहा है की रमन्ना के जाने के बाद भर्ती अभियान में भी तेजी आ गई। सूत्रों के मुताबिक सोंढूर बाँध के आसपास के पहाडी इलाकों में नक्सलियों ने गढ़ बना रखा है। इन क्षेत्रों के अलावां गरियाबंद, मैनपुर और उडीसा सीमा पर काफी संख्यां में वर्दीधारी नक्सलियों के देखे जाने की ख़बर है।

Tuesday, August 18, 2009

यह मेरा ब्लॉग है इसमे मैं देश दुनिया की तमाम घटनाओं पर अपने विचार लिखना चाहता हूँ। आपके विचारों का भी इसमे स्वागत है।