Monday, October 12, 2009

मुलाकात: वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. राजेन्द्र मिश्र से

डॉक्टर राजेन्द्र मिश्र प्रखर शिक्षाविद्, समालोचक, समीक्षक और वर्तमान दौर के प्रमुख साहित्यकारों में नक्षत्र के रूप में जाने जाते हैं। आज जब देश में साहित्यकारों की तादाद तेजी से बढ़ रही है उस भीड़ में वे सबसे अलग हैं। उनका यह साक्षत्कार मेरे द्वारा 09-09-09 को लिया गया था।
आपने अपनी साहित्यिक यात्रा की शुरूआत कब की ?
मेरा पहला लेख 1956-57 में नागपुर से प्रकाशित समाचार पत्र सारथी में छपा। इस पत्र के संपादक पंडित द्वारिका प्रसाद मिश्र थे। यह लेख संत कबीर पर केन्द्रित था। इसके पहले मैंने कुछ कविताएं भी लिखीं।
आप किन साहित्यकारों से प्रभावित हुए ?
कालेज की पढ़ाई के दौरान अंग्रेजी साहित्य का विद्यार्थी होने के कारण मैंने शेक्सपीयर और टीएस इलियट को पढ़ा। इन लेखकों से मैं काफी प्रभावित रहा। इसके अलावा पारिवारिक वातावरण भी ऐसा रहा, जिसने मुझे पढऩे को प्रेरित किया। मेरे पिताजी बिलासपुर में राघवेन्द्र राव लाइब्रेरी से पुस्तकें लाया करते थे। इस दौरान मैंने प्रेमचंद को पढ़ा। जब मैं छोटा था तब मेरे बाबा कहा करते थे, अगर तुम रामचरित मानस का एक कांड याद कर लोगे तो दो रूपए देंगे। उस समय दो रूपए काफी अहमियत रखते थे और बाबा के इस प्रलोभन से मैंने यह कठिन कार्य भी कर डाला। घर में मेरी मां रामचरित मानस का नियमित पाठ करती थीं। मेरे कान को दोहे-चौपाईयों का स्पर्श अपनी मां से मिला। बाद में अंग्रेजी में टीएस इलियट और हिंदी में अज्ञेय तथा गजानन माधव मुक्तिबोध का असर मुझ पर तब भी था और आज भी है।
आपको प्रभावित करने वाला कोई विशिष्ट लेखन या विवरण।
बीसवीं सदी की त्रासदी को टीएस इलियट ने वेस्ट लैण्ड में जिस तरह परिभाषित किया है, वह वास्तव में प्रभावित करने वाला है। वे बहुत ठोस और विवेकवान गद्य लिखते थे जो अद्भुत है। उनके अनुसार परंपरा दान में नहीं मिलती, इसे अर्जित करना पड़ता है। इसके अलावा तुलसीदास और निराला भी मेरी दृष्टि में महान भारतीय कवि या यू कहें संपूर्ण कवि थे।
आप साहित्य और संस्कृति को किस रूप में देखते हैं ?
मैं मानता हूं कि साहित्य अपने आप में संस्कृति का अपरिहार्य हिस्सा है। बगैर साहित्य के संस्कृति की कल्पना नहीं की जा सकती। संस्कृति वह है जो संस्कार देती है और साहित्य संस्कृति का रचनात्मक अवबोध है। मैं सोचता हूं कि भारतीय संस्कृति के केन्द्र में कवि रहा है। रामायण और महाभारत के बगैर भारतीय संस्कृति की कल्पना करना मुश्किल है। इन दोनों के लेखक कवि हैं। इस लिहाज से संस्कृति संवेदना का परिष्कार है और साहित्य इसका रचनात्मक माध्यम है। साहित्य अपने आप में सांस्कृतिक प्रक्रिया है। मैं सोचता हूं कि किसी भी समाज की अंतर्रात्मा और उसकी हलचल को उजागर करने का जो माध्यम है वह साहित्य है। साहित्य समाज का दर्पण नहीं है, जैसा आमतौर पर माना जाता है। दर्पण की सीमाएं हैं उसमें उतना ही देखा जा सकता है जितना आप दिखाई दे रहे हैं, जबकि साहित्य की संवेदना एक ओर जहां अतीत से रचनात्मक रिश्ता कायम करती है,वहीं उसमें भविष्य की परिकल्पना भी स्पंदित होती है, तो वह दर्पण कैसे हो सकता है ?
रचना के साथ आलोचना कितनी महत्वपूर्ण है ?
साहित्य अपने आप में समालोचना है। साहित्य या काव्य हृदय की मुक्ति है जबकि आलोचना बुद्धि की मुक्ति है। यानी रचना की तरह आलोचना भी एक महत्वपूर्ण साहित्यिक संस्था है। उसका काम केवल रचना को परिभाषित करना भर नहीं है बल्कि उसका एक बड़ा काम सभ्यता समीक्षा भी है। आचार्य रामचंद शुक्ल केवल साहित्यिक समीक्षक भर नहीं थे, उनके लिए संस्कृति और सभ्यता में आते हुए परिर्वतनों की पहचान भी उतनी ही महत्वपूर्ण थी। आलोचना सहयोगी प्रयास है।
साहित्य क्या व्यक्ति की अभिव्यक्ति है या समस्त की ?
साहित्य व्यक्ति के माध्यम से सार्वजनिक अभिव्यक्ति है। पूरी संस्कृति उस व्यक्ति की चेतना में छन के आगे आती है। साहित्य केवल अभिव्यक्ति ही नहीं है वह संप्रेषण भी है और संप्रेषण हमेशा दूसरों पर होता है।
बुनियादी तौर पर साहित्य में स्थानीयता के विवाद को आप किस रूप में देखते हैं ?
स्थानीयता सच्ची होनी चाहिए और सच्ची स्थानीयता में इतनी ऊ र्जा होती है कि वह स्थानीयता का अतिक्रमण करती है। तुलसीदास की जड़े अवधी में हंै, लेकिन वो सच्ची हैं इसलिए हर आदमी मरते समय रामचरित मानस का स्पर्श करना चाहता है। सच्ची स्थानीयता को 'लोकल इज ग्लोबलÓ के रूप में लिया जाना चाहिए।
कौन सी साहित्यिक बातें आपको अच्छी या बुरी लगती हैं ?
साहित्य में जो बुद्धि विरोधी बातें हैं वो मुझे कभी अच्छी नहीं लगती। मूखर्तापूर्ण व्यंग्य साहित्य मुझे पसंद नहीं। हिंदी में आज इतना खराब व्यंग्य साहित्य लिखा जा रहा है शायद संसार की किसी भी भाषा में उतना खराब साहित्य नहीं लिखा जा रहा है।
समकालीन हिंदी साहित्य आज किस दिशा में जा रहा है ?
वैसे भारतीय साहित्य अंगे्रजी में भी लिखा जा रहा है और कुछ लेखक वाकई बहुत अच्छा लिख रहे हैं। हर समय साहित्य में कचरा आता है, लेकिन पहचान सार्थक रचनाओं से करनी चाहिए। हिंदी में इस समय चार-पांच ऐसे कवि हैं, जो विश्व स्तर की कविताएं लिख रहे हैं। कहानी की बात करें तो कुछ अच्छे युवा कहानी लेखक सामने आ रहे हैं। लेकिन हमारा उपन्यास साहित्य कुछ कमजोर है। फिर भी जिस दृश्य में विनोद कुमार शुक्ल, अशोक वाजपेयी, कमलेश, विष्णु खरे, नामवर सिंह और कुंवर नारायण जैसे लेखक और आलोचक मौजूद हों, मैं उसे विपन्न नहीं मानता।
ऐसी क्या वजह है कि आपने अपने आप को कुछ समय से समेट लिया है या यूं कहें सरस्वती के मौन साधक बने हुए हैं ?
नहीं ऐसी बात नहीं है। अभी हाल ही में मुक्तिबोध पर आधारित मेरा काव्य संग्रह 'एक लालटेन के सहारेÓ छपकर आया है। फिलहाल मैं बीसवीं सदी की कविताओं को नए सिरे से पढ़ रहा हूं। हॉं ये बात जरूर है कि मैं बड़बोला नहीं हूं। वैसे अपनी अभिव्यक्ति के लिए साहित्य में एकाग्र होने की कोशिश जरूर करता हूं, ताकि बिखरी हुई अनुभूतियों को संग्रहित कर सकूं। साहित्य जीवन के प्रति विश्वास बनाए रखता है। आपने मौन होने की बात की तो व्यक्ति को मौन तो रहना ही चाहिए। मौन होकर बोलना चाहिए। बात करें सरस्वती कि तो सरस्वती की खूबी है कि वह अंत:शरीर हंै, दिखाई नहीं देती। दिखाई तो लक्ष्मी देती हैं। अब बारी आती है समेटने की तो अपने आप में समेटना ही तो साहित्य है। अगर समेटेंगे नहीं तो सब कुछ बिखर जाता है।
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मुलाकात गांधीवादी नेता केयूर भूषण से

छत्तीसगढ़ के शालीन सांसदों में केयूर भूषण की सादगी हमेशा सार्वजनिक चर्चा के केंद्र में रही। सहज-सरल स्वभाव के इस नेता ने दिखावे की जिंदगी को कभी तवज्जो नहीं दी। अस्सी साल से ज्यादा उम्र के इस गांधीवादी नेता की विशेषता है कि वे आज दिन भी साईकल से चलते हैं। स्वतंत्रता संग्राम में भी उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बासठवें स्वतंत्रता दिवस के मौके पर पत्रकार संजय दुबे द्वारा उनसे की गई बातचीत में आज के परिवेश में उनकी पीड़ा बरबस दिखाई देती है।
छत्तीसगढ़ में स्वतंत्रता आंदोलन की शुरूआत कब और कैसे हुई ?
छत्तीसगढ़ में अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष 1824 में तब शुरू हुआ जब परलकोट के जमीदार गैनसिंह ने बस्तर में सबसे पहले मोर्चा खोला। उस समय छत्तीसगढ़ अंग्रेजों की कंपनी सरकार और मराठों के संयुक्त सरकार के अधीन था । इसी दौरान बस्तर पर संयुक्त हमला हुआ, चंद्रपुर की तरफ से। दोनों फौजें आमने- सामने थीं। आबूझमाड़ क्षेत्र के आदिवासियों ने इस हमले का डटकर मुकाबला किया। इस हमले में सैकड़ों आदिवासी मारे गए, जिसका कोई रिकार्ड नहीं है। सबसे पहले विरोध करने वाले गैनसिंह को गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हीं के महल के सामने फांसी दे दी गई।
उसके बाद सन् 1857 के विद्रोह की आग छत्तीसगढ़ में भी भड़की। हालांकि छत्तीसगढ़ में इस आंदोलन की मूल वजह भूख रही। उसके पश्चात यहां भी स्वतंत्रता आंदोलन तेज होता गया और देश की स्वतंत्रता में छत्तीसगढ़ के लोगों ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसकी मूल वजह यहां की पीड़ा और स्वतंत्रता की भावना रही। इस आंदोलन की विशेषता यह थी कि इसमें बंजारों से लेकर राज परिवार तक के लोगों ने भाग लिया। अंग्रेजों के आने के बाद हीे छत्तीसगढ़ में अकाल पड़ा। इसके पहले यहां कभी अकाल नहीं पड़ा था। इस दौरान अंग्रेजी हुकूमत के विरोध में कई लोग उभर कर सामने आए, उसमें सबसे प्रमुख हैं सोनाखान के वीर नारायण सिंह। उस समय अकाल के कारण भूखमरी की स्थिति थी, अंगेज सरकार जनता के लिए कुछ नहीं कर रही थी और साहूकार लूट-खसोट पर उतारू हो गए थे। ऐसे में लोगों की पेट की भूख बुझाने के लिए वीर नारायण सिंह सामने आए। छत्तीसगढ़ में स्वतंत्रता आंदोलन की बुनियादी वजह भूख रही है। वीर नारायण सिंह ने न केवल लोगों को आनाज दिलाया बल्कि अपनी फौज बनाकर अंग्रेजों का मुकाबला भी किया। पकड़े जाने के बाद उन्हें फांसी दे दी गई। उधर हनुमान सिंह के नेतृत्व में फौज में बगावत हुई। अपने जनरल को मारने के बाद वे फरार हो गए, उनका आज तक पता नहीं चला। उनके सत्रह साथियों को रायपुर में, आज जहां पुलिस लाईन है, वहीं फांसी दे दी गई। लेकिन यह दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है कि आज तक उन शहीदों की याद में यहां एक स्तंभ तक नहीं लगा। यहां तक कि उनकी नाम पट्टिकाएं भी नहीं लगी हैं।
आप स्वतंत्रता आंदोलन से कैसे जुड़े ?
मेरा जन्म दुर्ग जिले में 1928 में हुआ और शुरूआती शिक्षा वहीं हुई। उसके बाद बिलासपुर आ गया। करीब 9 वर्ष उम्र रही होगी, जिस प्राइ्र्र्रमरी स्कूल में पढ़ता था वहां हमेशा स्वतंत्रता आंदोलन की चर्चा होती रहती थी। उस समय मेरा ज्यादातर समय मदारी के खेल देखने या सत्याग्रहियों का भाषण सुनने में बीतता था। पढ़ाई-लिखाई में मेरा ज्यादा मन नहीं लगता था, लेकिन मैं गीत जरूर लिखता था। गाहे-ब-गाहे भाषण भी दे लेता था। इसके बाद सन् चालीस-इकतालीस में मैं रायपुर आ गया। उस समय रायपुर में नगर पालिका के चुनाव हो रहा था। शहर में मुझे कई जगह ’’गरीबों का सहारा है ठाकुर हमारा -ठाकुर प्यारेलाल सिंह को वोट दें ‘‘ लिखा मिला। गरीबों का सहारा शब्द ने मुझे काफी प्रभावित किया और मैंने इस नारे को अपनी कापी के पन्नों में लिखकर घर-घर जाकर लोगों को बांटा। हालांकि उस वक्त तक मैं ठाकुर प्यारेलाल सिंह के बारे में नहीं जानता था। कुछ दिन बाद रायपुर में सत्याग्रह आंदोलन का भाषण सुनने का अवसर मिला और उसके बाद तो यह मेरी दिनचर्या बन गई। सन् 1942 के आंदोलन में तीन बार जेल भी गया।
आप सक्रिय राजनीति में कैसे आए ?
शुरूआती दिनों मैं कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ा और उसके बाद कांग्रेस में आया। सन् 1956 में छत्तीसगढ़ स्वतंत्र राज्य की मांग को लेकर रायपुर में एक सम्मेलन हुआ। इस सम्मेलन में करीब 50 हजार लोगों ने हिस्सा लिया और इसी दौरान छत्तीसगढ़ी महासभा का गठन किया गया। डाॅ. खूबचंद बघेल इसके अध्यक्ष बने और मैं इसका सह-सचिव था। यहीं से मेरे राजनीतिक जीवन की शुरूआत हुई। हालांकि मैं कांग्रेस का सीधे-सीधे सदस्य नहीं रहा।
आप राजनीति में किससे प्रभावित रहे ?
मैं आरंभ में कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रभावित था। हालांकि उस दौर के कई ऐसे नेता थे, जिन्होंने मुझे प्रभावित किया। मैं गांधीजी की विचारधारा से विशेष रूप से प्रभावित हुआ।
आज की राजनीति में कौन सी चीज आप को सबसे अधिक विचलित करती है ?
वर्तमान राजनीति में बहुत सी ऐसी चीजें हैं, जो मुझे विचलित करती हैं। छत्तीसगढ़ स्वतंत्र राज्य तो बन गया, लेकिन अभी भी छत्तीसगढ़ियों को शोषण से मुक्ति नहीं मिली। आज की राजनीति सत्तापरक हो गई है, व्यक्तिपरक नहीं रही। प्रदेश में उद्योगों को बसाने के नाम पर ग्रामीणों को उजाड़ा जा रहा है। मैं मानता हूं कि विकास में उद्योगों की महत्वपूर्ण भूमिका है, लेकिन ग्रामीण पीढ़ी-दर-पीढ़ी से जिस गांव, जिस घर में रहा रहा है, वहां से उसे उजाड़ कर नहीं।
नक्सल समस्या के समाधान के लिए आपने नक्सली नेताओं से बातचीत की सरकार से अनुमति मांगी थी। क्या आपको लगता है कि सरकार ने अनुमति न देकर ठीक नहीं किया ?
हो सकता है। आदिवासियों की समस्याओं ने नक्सलवाद को जन्म दिया है। आदिवासी आज जल, जंगल और जमीन के अपने अधिकार से वंचित हो रहे हैं। आज गांधीजी के ग्राम स्वराज के अवधारणा को अपनाने की जरूरत है। आदिवासियों को उनके अधिकारों से किसी भी हाल में वंचित नहीं रखा जाना चाहिए। ऐसा नहीं होने पर भूख, बेरोजगारी और हिंसा जन्म लेती है। बाहरी व्यापारियों ने यहां के आदिवासियों की जमीन हथियाने का नया तरीका निकाल लिया । अगर बस्तर की बात करें तो आज आलम ये है कि दूसरे राज्यों के व्यापारी यहां की ग्रामीण महिलाओं से विवाह कर, जमीन खरीद रहे हैं और उसके बाद वे महिलाएं मात्र नौकर बन कर रह जाती हैं। बस्तर मार्ग पर सड़कों के किनारे आदिवासियों के खेत देखने को नहीं मिलेंगे, अगर कुछ दिखेगा तो व्यापारियों के बड़े-बड़े कृषि फार्म। इसके अलावा मषीनों के अत्याधिक उपयोग पर भी रोक जरूरी है। जिन कामों को हाथ से किया जा सकता है, उसमें मशीनों का उपयोग नहीं होना चाहिए। जो मषीनें हाथ काट देती हैं, ऐसी मशीनें न लगाएं।
क्या नक्सली समस्या के समाधान के लिए आप कुछ प्रयास करने का सोच रहे हैं ?
जी हां। आगामी 2 अक्टूबर से गांधी विचार मंच की लगभग साढ़े आठ सौ टुकड़ियां विभिन्न ग्रामीण और नक्सल प्रभावित क्षेत्रों का दौरा करेंगी। ये दल ग्रामीण क्षेत्रों में रूकेंगे और ग्रामीण, नक्सली तथा राजनीतिक दलों से बात करेेंगे। इस दौरान ग्राम स्वराज पर विशेष जोर दिया जाएगा। क्योंकि ग्राम सभाओं के मजबूत और अधिकार संपन्न होने से भ्रष्टाचार कम होगा तथा ग्रामीण क्षेत्रों का सही विकास हो सकेगा।
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Sunday, October 11, 2009

मुलाकातः युवा कहानीकार आनंद हर्षुल से

(मेरे द्वारा २६-0७-09 को लिया गया साक्षात्कार)
आपने ने लेखन की शुरूआत कब की ?
मैंने लेखन की शुरूआत 1980 के आसपास की। पहले मैं कविताएं लिखा करता था। सन् 1984 में मेरी पहली कहानी छपी उसका शीर्षक था ’’बैठे हुए हाथी के भीतर लड़का’’। मेरा पहला कहानी संग्रह भी इसी शीर्षक के नाम से है।
क्या कविता लिखने का सिलसिला अब भी जारी है ?
नहीं। कहानी लिखने के बाद कविताएं लिखना छूट गईं। सामान्यः लोग लेखन की शुरूआत कविता से करते हैं, लेकिन बाद कई लोगों की दिशा बदल जाती है। वरिष्ठ साहित्यकार नामवर सिंह भी कभी कविता लिखा करते थे, लेकिन अब बहुत से लोग जानते भी नहीं होंगे कि वे कविता लिखते थे।
अभी तक आपके कितने कहानी संग्रह प्रकाशित हुए हैं ?
अभी तक मेरे दो कहानी संग्रह प्रकाशित हुए हैं। पहला कहानी संग्रह ’’बैठे हुए हाथी के भीतर लड़का’’ और दूसरा ’’पृथ्वी को चंद्रमा’’ है। इसके अलावा मेरा तीसरा कहानी संग्रह जल्द ही आने वाला है जिसका शीर्षक है ’’अधखाया फल’’।
आपने कभी उपन्यास लिखने के बारे में नहीं सोचा ?
उपन्यास लिखने की कोशिष तो की, लेकिन नौकरी के कारण उतना समय मिलता नहीं है। दूसरा कारण उपन्यास लिखने के लिए वैसा मन बन जाना जरूरी है। कई वर्षों से एक उपन्यास का बारह-तेरह पेज लिखकर बैठा हूं, लेकिन पूरा नहीं कर पा रहा हंू।
आपकी लिखी कोई कहानी, जो आपको विशेष पसंद हो ?
मेरी कुछ कहानियां मुझे अच्छी लगती हैं, लेकिन जरूरी नहीं कि वो मेरे पाठकों को भी उतनी ही अच्छी लगें। जैसे- ’’पृथ्वी को चंद्रमा’’, ’’रेगिस्तान में झील’’ आदि कुछ कहानियां हैं जो मुझे विशेष पसंद हैं। ऐसी क्या चीज है जो आपको कहानी लिखने के लिए प्रेरित करती है ?
कोई दृश्य जो मेरे हृदय को स्पर्श करे, लिखने को प्रेरित करता है। जैसे ’’रेगिस्तान में झील’’ कहानी लिखने की प्रेरणा मुझे राजस्थान में मिली। रेगिस्तान में डूबते सूरज की किरणों ने मुझे यह कहानी लिखने को मजबूर किया। कहानी लिखने के लिए पूरा कथानक होने की जरूरत नहीं, केवल एक दृश्य ही काफी होता है।
क्या आप मानते हैं कि लोग अब साहित्य से दूर हो रहे हैं ?
हां मैं मानता हूं कि साहित्य के पाठक कम हो रहे हैं। अब एक लेखक ही दूसरे लेखक को पढ़ता है। आज के दौर में एक पड़ोसी भी नहीं जानता कि उसके पड़ोस में कोई लेखक रहता है। पड़ोस में कोई लेखक रहता है इस बात का गर्व करने का कोई कारण नहीं है।
हिंदी साहित्य आज किस दिशा में जा रहा है ?
अगर कहानियों की बात करें तो मुझे लगता है इसकी स्थिति काफी अच्छी है। पिछले 10 सालों में काफी अच्छी कहानियां लिखी गई हैं, जो विश्व स्तर की ही हैं। इस बीच लेखकों की नई पीढ़ी भी सामने आई है। लेकिन मुझे लगता है कि हिंदी का प्रचार प्रसार विश्व स्तर पर उतना नहीं है जितना होना चाहिए। इसकी चिंता किसी को नहीं है। खासकर कविता की स्थिति कुछ ठहर सी गई है, वो अस्सी-नब्बे के दशक से आगे नहीं बढ़ पाई है। हालंाकि यह मेरा निजी विचार है।
हिन्दी कहानियों में क्या बदलाव आया है ?
मुझे लगता है कि हिंदी की नब्बे प्रतिशत कहानियां मुंशी प्रेमचंद के ईर्द-गिर्द ही घूमती हैं जबकि उसकी बिल्कुल जरूरत नहीं है। प्रेमचंद ने यथार्थ पर जिस तरह का काम किया है, उसके बाद अब यथार्थ के परे देखना भी जरूरी हो गया है कि कहीं हम अपने जीवन के आभासिय यथार्थों में तो नहीं जी रहे हैं। जिसे हम यथार्थ समझ रहे हैं वह सही में यर्थाथ है या नहीं।
कथा साहित्य में कल्पना और यथार्थ की भूमिका कितनी होती है ?
कथा साहित्य में कल्पना तो होती है, लेकिन उसकी जमीन में यथार्थ होता है। मनुष्य जो कल्पना करता है वह अपनी देखी और सुनी चीजों के आसपास ही करता है। इसलिए किसी कथा में जो कल्पना है वह यथार्थ के आसपास ही घटित हुई होती है। मेरा मानना है कि इसमें कल्पना ज्यादा होती है, लेकिन वह कल्पना जीवन के यथार्थ से ही जुड़ी होती है।
वर्तमान में आप क्या लिख रहे हैं ?
अभी मे कुछ कहानियां लिख रहा हूं। इनमें से कुछ कहानियां पत्रिकाओं में छपी हैं। इसके अलावा उपन्यास लिखने का मन भी बना रहा हूं।
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