Sunday, March 28, 2010

तार पर लटककर जाते हैं स्कूल

स्कूल जाने के लिए बच्चों को आपने पैदल चलते, तो कभी साइकिल, ऑटोरिक्शा या फिर बस की सवारी करते कई बार देखा होगा। लेकिन यह जानकर आपको आश्चर्य होगा कि दुनिया में एक स्थान ऎसा भी है, जहां स्कूल जाना इतना आसान नहीं है। जी हां, यहां बच्चों को पहाडियों के बीच जिप तारों पर घिर्री की सहायता से लटकते हुए करीब 40 मील प्रति घंटे की गति से रास्ता तय करना पडता है, जिससे वे नियमित रूप से कक्षाओं तक पहुंच सकें।


'डेली मेल' की खबर के अनुसार कोलंबिया में रियो नेग्रो नदी से करीब 400 मीटर ऊंचाई पर इन तारों की व्यवस्था है। दूसरे छोर पर पहुंचने के लिए बच्चे आधे मील की दूरी तय करते हैं। राजधानी बोगोटा से 40 मील दक्षिण-पूर्व पर स्थित इस क्षेत्र में रह रहे कुछ परिवारों के लिए यहां एक घाटी को दूसरी घाटी से जोडने के लिए इस तरह के 12 स्टील केबल एकमात्र जरिया हैं।
बताया जा रहा है कि सबसे पहले जर्मनी के अन्वेषणकर्ता अलेक्जेंडर वॉन हम्बोल्ट ने 1804 में इन विशेष रास्तों को देखा था। तब इन्हें पारंपरिक रूप से सन (हैंप) से बनाया जाता था। बाद में इनकी जगह स्टील केबल्स लगाए गए। इसके बाद यहां लोगों ने खेती और पशुपालन करने की शुरूआत कर दी।
आवाजाही का एकमात्र जरिया वर्तमान में यहां रह रहे सभी लोगों के लिए दूसरे स्थान तक पहंुचने के लिए कोई अन्य जरिया नहीं है। ये सभी पूरी तरह से इन्हीं केबल्स पर निर्भर हैं। किसानों को अपने उत्पादों को अन्य स्थानों पर पहंुचाना हो, या फिर नन्हे बच्चों को स्कूल जाना हो, सभी को इन्हीं तारों से होकर गुजरना होता है। कई बार बच्चों को गति को नियंत्रित करने के लिए खुद को जूट बैग में बैठाकर कुल्हाडी जैसे यंत्र की मदद से संतुलन बनाते हुए चलते हुए भी देखा जा सकता है।
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Friday, March 19, 2010

उपेक्षित धरोहर, बेसुध सरकार

दक्षिण कोसल के अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त पुरातात्विक स्थलों में की सूची में सिरपुर का स्थान सर्वोच्च है। महानदी के तट पर स्थित सिरपुर अतीत में सदियों से सांस्कृतिक विविधता एवं वास्तुकला का केन्द्र रहा है। सोमवंशी शासकों के काल में इसे दक्षिण कोसल की राजधानी होने का गौरव भी प्राप्त था। सातवीं सदी में चीन के महान पर्यटक तथा विद्वान ह्वेनसांग ने सिरपुर की यात्रा की थी। उनके अनुसार सिरपुर में उस समय करीब 100 संघाराम थे, जिनमेें महायान संप्रदाय के दस हजार भिक्षु निवास करते थे। यह स्थल दीर्घकाल तक ज्ञान-विज्ञान और कला का केन्द्र बना रहा। सिरपुर के पुरावैभव की ओर सबसे पहले ब्रिटिश विद्वान बेगलर व सर अलेक्जेंडर कनिंघम द्वारा आर्केलाजिकल सर्वे रिपोर्टस ऑफ इंडिया में प्रारंभिक विवरण प्रकाशित किए थे। सिरपुर में वर्ष 1953 से 1956 में बीच सागर विश्वविद्यालय एवं मध्यप्रदेश शासन के पुरातत्व विभाग द्वारा संयुक्त रूप से डॉ. एम.जी. दीक्षित के निदेशन में उत्खनन का कार्य करवाया गया। इस खुदाई में यहां टीले के भीतर दबे हुए दो बौद्ध विहार सामने आए। इसके अलावा पुरातात्विक महत्व की अनेक वस्तुएं भी मिलीं।
छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद सन् 2000 से वरिष्ठ पुरातत्वविद् अरूण कुमार शर्मा के निदेशन में उत्खनन का कार्य शुरू हुआ। इन दस वर्षों में सिरपुर में 38 टीलों की खुदाई की जा चुकी है। यहां करीब 184 टीलें हंै। सिरपुर में देश की पहली वेद पाठशाला मिली है। इसके अलावा यहां हिन्दू, जैन, बौद्ध, शैव और वैष्णव धर्म के प्रमाण भी मिले हैं। शैव और वैष्णव धर्म के धर्मावलंबियों के बीच की खाई पाटने के लिए इस ऐतिहासिक स्थल पर छह हरिहर मंदिर भी प्राप्त हुए हैं। खुदाई के दौरान अब तक यहां 18 मंदिर, 8 बुद्ध विहार और 3 जैन मंदिर मिले हैं। एक बड़ा महल और प्रधानमंत्री निवास भी प्राप्त हुआ है। सिरपुर में महानदी धनुष का आकार लिए है। इस उत्खनन में एक महत्वपूण बात यह भी सामने आई है कि सिरपुर एक पूर्ण विकसित नगर होने के साथ ही बड़ा शैक्षणिक व्यापारिक और आयुर्वेदिक केन्द्र भी था। पूर्णत: वास्तु के अनुरूप बने इस नगर में कई आर्युेदिक स्नानागार भी मिले हैं। साथ पूरे नगर में भूमिगत नालियां होना यह सिद्ध करता है कि सिरपुर कितना विकसित है। दुर्भाग्य कि बात है कि सदियों पहले जहां पानी की निकासी के लिए भूमिगत नालियां होती थीं वहीं आज इक्कीसवीं सदी में राजधनी रायपुर के लोग इस सुविधा से वंचित हैं।

सिरपुर के आसपास रहने वालों लोगों में सदियों से एक किदवंती चली आ रही है कि यहां अढ़ाई वर्ष का खर्चा छुपा हुआ है। यहां खर्चा से आशय धन या संपत्ति है। उत्खनन से यह किदवंती सही साबित हुई। दरअसल, पिछले वर्ष खुदाई के दौरान यहां अन्नागार मिले। अब तक 48 अन्नागार प्राप्त हो चुके हैं। इन अनाज भंडारों में इतना अनाज समा सकता है कि अगर ढ़ाई वर्ष तक अकाल पड़े , (ई. पूर्व तीसरी शताब्दी में) तब भी दक्षिण कोसल की जरूरत को पूरा किया जा सकता था। लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि सिरपुर का इतना समृद्ध इतिहास होते हुए भी देश-दुनिया के पर्यटकों और विद्यार्थियों को जानकारी देने की कोई पहल संस्कृति विभाग द्वारा नहीं की गई है। यहां जाने वाले पर्यटकों को जानकारी देने के लिए कोई गाईड तब उपलब्ध नहीं है। गौर करने वाली बात यह है कि उत्खनन के दौरान मिली बेशकीमती पुरावस्तुओं को प्रदर्शित करने के लिए अभी तक सिरपुर में कोई संग्रहालय तक नहीं बनाया जा सका। पुरातत्वविद् अरूण कुमार शर्मा ने इस ओर कई बार विभाग के अधिकारियों का ध्यान आकृष्ट भी कराया। वहीं छत्तीसगढ़ में उत्खनन के विशेषज्ञ पुरातत्वविदों की भी कमी है। राज्य के विश्वविद्यालयों में प्राचीन इतिहास तो पढ़ाया जाता है लेकिन आज तक कभी भी पंडित रविशंकर शुक्ल या गुरू घासीदास विश्वविद्यालयों के विद्यार्थियों को सिरपुर का भ्रमण नहीं कराया गया, ताकि वे अपने राज्य की इस समृद्ध विरासत को नजदीक से देख और समझ सकें। इसके अलावा उत्खनित स्थलों को जिस लापरपाही से बिना किसी सुरक्षा के छोड़ दिया गया है, वह भी चिंता का विषय है। पुरात्व और संस्कृति विभाग द्वारा मौजूदा वित्त वर्ष में ऐसे स्थलों के अनुरक्षण के लिए 58 लाख रूपए खर्च किए गए हैं, इसके बावजूद इन स्थलों का सौंदर्यीकरण तक नहीं हो सका है। उत्खनन के नाम पर करोड़ों रूपए खर्च कर देने से ही इसे विश्व मानचित्र पर नहीं लाया जा सकता है, इसके लिए स्थलों का उचित रख-रखाव और सौंदर्यीकरण भी आवश्यक है।
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Wednesday, March 10, 2010

कब रूकेगा अंधविश्वासों का सिलसिला ?

कभी टोनही के नाम पर महिलाओं को प्रताड़ित करने तो कभी तंत्र-मंत्र सिध्दियों के लिए मासूमों की बलि देने जैसे क्रूरतम अंधविश्वासों का सिलसिला आखिर कब थमेगा ? विज्ञान और सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में अग्रण्ाी छत्तीसगढ़ राय में इस तरह की घटनाएं आज भी आम हैं। क्रूरता की पराकाष्ठा पार कर हाल ही सामने आई दो घटनाओं ने एक बार फिर सोचने के लिए झकझोर दिया है कि आखिर हम किस युग में जी रहे हैं। रोती, बिलखती, मौत के बाहों में झूलती जिंदगी भले ही इक्कीसवीं सदी के दसवें पायदान पर आ खड़ी हो गई हो, लेकिन आज के वैज्ञानिक युग में भी अंधविश्वास की पकड़ ढीली नहीं हुई है। धमतरी जिले के एक बैगा ने छह साल के मासूम बच्चे की बलि दे दी। जिला मुख्यालय से मात्र 4 किलोमीटर की दूरी पर स्थित बंजारी ग्राम के इस बैगा ने बच्चे का गला काटकर उसकी लाश बाड़ी में फेंक दी थी। वहीं राजधानी से सटे टेकारी गांव में एक युवक ने अपनी विधवा भाभी की सिर्फ इसलिए हत्या कर दी कि उसे उसके टोनही होने का शक था। इसी महीने घटित एक अन्य घटना में दुर्ग जिले के बेरला थाना क्षेत्र में एक गांव के कुछ लोगों द्वारा एक महिला को टोनही के नाम पर आए दिन सरे-राह प्रताड़ित किया जा रहा था। इस मामले में गनीमत इतनी रही कि उस महिला ने समय रहते पुलिस को सूचित कर दिया नहीं तो शायद वह भी अंधविश्वास के ठेकेदारों की दरिंदगी का शिकार हो जाती।
छत्तीसगढ़ में टोनही के आरोप में महिलाओं की प्रताड़ना का दौर कब थमेगा, इसका जवाब शायद किसी के पास नहीं है। राय के पिछड़े अंचलों में टोनही यानि डायन घोषित करके महिलाओं को सरेआम जलील करने और मास हिस्टीरिया की क्रूरतम परिणति के रूप में टोनहियों को मौत के घाट उतार देने की अनेक रोंगटे खड़े कर देने वाली घटनाएं इस प्रदेश के माथे पर कलंक हैं। हालांकि मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने इस कलंक को धोने का भरसर प्रयास किया। छत्तीसगढ़ विधान सभा में 19 जुलाई 2005 का दिन इस .ष्टिकोण से ऐतिहासिक रहा। सरकार के प्रयास से इस दिन टोनही प्रथा उन्मूलन विधेयक 2005 सदन में पारित हुआ। इस कड़े कानून के बनने के बाद उम्मीद की जा रही थी कि सदियों से चली आ रही इस कुप्रथा के अभिशाप से महिलाओं को मुक्ति मिल जाएगी।
लेकिन इतना कड़ा कानून लाने के बाद भी इस तरह की घटनाओं के बंद होने का सिलसिला थमा नहीं। आखिरकार राय की पुलिस ने भी टोनही प्रथा के खिलाफ लोगों को जागरूक करने और इस कानून की जानकारी देने का बीड़ा उठाया। पिछले वर्ष पुलिस महानिदेशक विश्वरंजन की पहल पर पुलिस विभाग द्वारा अंधविश्वासों से मुक्त करने के लिए राय के हर गाँव से एक-एक कार्यकर्ता को प्रशिक्षित करने की योजना बनाई गई। ऐसा कहा गया था कि ये प्रशिक्षित कार्यकर्ता अपने-अपने गाँव में पांरपरिक रूप से प्रचलित अंधविश्वासों, जैसे टोनही, डायन, झाड़-फूँक, धन दोगुना करने की चालाकियों, गड़े धन निकालने, शारीरिक, मानसिक आपदाओं को हल करने के लिए गंडे ताबीज, चमत्कारिक पत्थर एवं छद्म औषधियों का प्रयोग कर धन कमाने वाली गतिविधियों से सचेत करते हुए उनके पीछे की चालाकियों एवं ट्रिक्स की वैज्ञानिक व्याख्या और प्रायोगिक प्रदर्शन करके जनजागरण करेंगे। इस योजना के तहत करीब बीस हजार स्वंसेवी कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षित करने का दावा किया गया था, लेकिन पुलिस का यह प्रयास भी खोखला साबित हुआ। अब राय की पुलिस को भी यह सोचना होगा कि आखिर उसके प्रयास में कहां खोट रह गई।
गांवों में ही नहीं शहरों में भी अंधविश्वास की पैठ बहुत गहरे तक है। कुछ वर्ष पहले एक अफवाह फैली रात में डायन के घूमने की, जो प्याज मांगती है और ऐसा नहीं करने पर संतान को खतरा है। इस बे सिर-पैर वाली खबर का असर ऐसा दिखा कि गांवों के अलावा शहरों में यहां तक की राजधानी में भी लोगों ने अपने घर के सामने गोबर से ओम नम: शिवाय तक लिखवा डाला और तो और राय के एक पूर्व वरिष्ठ नेता तथा राय के कर्णधार रहे राजनीतिज्ञ तथा एक मंत्री भी इस काम में पीछे नहीं रहे। सवाल यह उठता है कि क्या अंधविश्वास इस कदर हमारे दिलों-दिमाग में अपनी जड़े जमाए हुए है ? ग्रामीण क्षेत्रों में टोनही के नाम पर हो रही प्रताड़ना को लेकर एक अहम सवाल यह भी खड़ा होता है कि गरीब, मजदूरी करने वाली, विधवा, परित्यक्ता और बेसहारा महिलाएं ही क्यों टोनही का शिकार होती हैं, रसूख वाले घरों की महिलाएं क्यों नहीं ? यह एक अभिशप्त, अशिक्षा तथा गरीबीजन्य त्रासदी है और ऐसी सामाजिक विकृति है जिससे हर ऐसी नारी जूझ रही है। बेसहारा और कमजोर महिलाओं को सताने का औजार है टोनही प्रथा। ताजा हालातों को देखते हुए ऐसा नहीं लगता कि केवल कड़ा कानून बना देने या कुछ लोगों को प्रशिक्षण दे देने से ही यह समस्या हल हो जाएगी। इसके लिए शिक्षा के प्रसार के साथ-साथ लोगों के दिमाग में बैठे अंधविश्वास के भूत को भी निकालना होगा। ऐसी व्यवस्था करनी होगी जिससे राय के किसी भी कोने में रहने वाली महिला को यह जानकारी हो सके कि ऐसी स्थिति में उसे क्या करना चाहिए। साथ ही सरकारी अमला भी ऐसे मामले में गंभीरतापूर्वक त्वरित कार्रवाई करे तभी इस अभिशाप से निपटा जा सकता है।
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