Wednesday, June 30, 2010

कब तक जारी रहेगा यह खूनी खेल.....

By Sanjay Dubey
29 जून 2010 - घात लगाकर बैठे नक्सलियों ने नारायणपुर जिले के धौड़ाई क्षेत्र में सर्चिंग पर निकले जवानों को निशाना बनाया, 27 जवान शहीद.... 6 अप्रैल 2010 - नक्सलियों ने दंतेवाड़ा में मकराना के जंगलों में केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) की एक टुकड़ी पर हमला किया, 76 जवान शहीद.. तारीख 8 मई 2010 - बीजापुर जिले में नक्सलियों ने सीआरपीएफ के बुलेट प्रूफ वाहन को बारूदी सुरंग से उड़ा दिया, 7 जवानों की मौत हो गई.. तारीख 16 मई 2010 राजनांदगांव के तेरेगांव के नजदीक नक्सलियों ने मुखबिरी के आरोप में सरपंच सहित छह ग्रामीणों को मौत के घाट उतार दिया.. ..ये वे तारीखें हैं, जो पिछले तीन महीनों में नक्सलियों के लगातार हमलों और सुरक्षा बलों के जवानों या आम आदमी के खून से लाल हुई हैं। नक्सलवाद की आग में झुलस रहा छत्तीसगढ़ एक बार फिर लाचारी और बेबसी की रोनी सूरत बनाकर देश के सामने खड़ा है। पिछले कुछ महीनों में हुए इन बड़े हमलों ने यह तो साबित कर दिया है कि नक्सलियों के सामने सरकार का सूचना तंत्र बेहद कमजोर है। और अपने मजबूत सूचना नेटवर्क के जरिए नक्सली एंबुश लगाकर आए दिन बड़ी वारदातों को अंजाम देकर साफ बच निकलते हैं। सैकड़ों की तादात में नक्सली इकठ्ठा होते हैं और बेखौफ होकर अपना काम कर चल देते हैं, लेकिन पुलिस को इसकी कोई भनक तक नहीं लगती। आखिर कब तक जारी रहेगा यह खूनी खेल, शायद इसका जवाब न राज्य सरकार के पास है और न केन्द्र सरकार के पास। बीते दिनों हुई कुछ घटनाओं से यह तो साफ हो गया है कि हमारे जवान आसानी से नक्सलियों की चाल में फंस जाते हैं। पुलिस दावा करती है कि हमले में सैकड़ों नक्सली शामिल थे, लेकिन सर्चिंग में इतनी बड़ी तादाद होने के बावजूद उसके हाथ एक भी नक्सली नहीं आते। कारण साफ है जितने भी बड़े नक्सली हमले हुए हैं, वे इलाके पूरी तरह नक्सल प्रभावित हैं। वारदात में शामिल हार्डकोर नक्सलियों की संख्या तो गिनी-चुनी रहती है बाकी सब ग्रामीण होते हैं, जो नक्सलियों के दबाव में या उनसे प्रभावित होकर उनका साथ देते हैं और घटना को अंजाम देने बाद आसपास के अपने गांवों में चले जाते हैं और पुलिस को कुछ भी हाथ नहीं लगता है। इस उग्रवाद को समझने के लिए इसके मूल में जाना आवश्यक है।

नक्सलवाद अपने मूल में कानून और व्यवस्था की समस्या नहीं, बल्कि राजनीतिक और आर्थिक समस्या के साथ-साथ सामाजिक और सास्कृतिक समस्या भी है। इसका समाधान राजनीतिक तरीकों से आर्थिक-सामाजिक विकास और सास्कृतिक समायोजन द्वारा ही हो सकता है। 1967 में दार्जिलिंग जिले के एक गांव नक्सलबाड़ी से शुरू होने के कारण इस संघर्ष को नक्सलवाद कहा जाने लगा। इसमें नक्सलवादियों और शासन द्वारा व्यापक हिंसा हुई। उस समय बुद्धिजीवियों, प्रेसिडेंसी कालेज कोलकाता और सेंट स्टीफेंस कालेज, दिल्ली के छात्रों ने इसका खुल कर समर्थन किया। कुछ ही वषों में 12 प्रदेशों के 150 जिलों में नक्सलवादी फैल गए। वे बिहार, उड़ीसा, झारखंड, छतीसगढ़, आध्र प्रदेश होते हुए कर्नाटक तक एक सघन लाल गलियारा जैसा बना चुके हैं। इनकी विचारधारा चीन के माओ त्से तुंग से प्रभावित है जिसके अनुसार सत्ता बंदूक के नली से निकलती है।

सवाल यह है कि नक्सलवाद क्यों फैलता जा रहा है और सत्ता प्रतिष्ठान का इसके प्रति क्या रुख है। दरअसल, नक्सलवाद के पनपने में मूल रूप से सत्ता प्रतिष्ठान ही जिम्मेदार है। योजना आयोग ने 2006 में नक्सलवाद की समस्या से निपटने के लिए डी. बंदोपाध्याय की अध्यक्षता में एक समिति गठित की थी। समिति ने अप्रैल 2008 को अपनी रिपोर्ट दी। इसमें विस्तार से उल्लेख है कि किस तरह सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक रूप से आदिवासी और दलित समाज पीडि़त है। उनकी समस्याओं को नक्सलवादी तत्काल समाधान करने की कोशिश करते हैं। इस प्रकार वे उन लोगों में अपनी पैठ बनाते जा रहे हैं। सत्ता प्रतिष्ठान न इन समस्याओं के प्रति जागरूक है और न ही समर्पित। इस रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से कहा है कि गरीबी और शोषण का नक्सलवाद से सीधा संबंध है। रिपोर्ट में स्पष्ट कहा गया है कि सबसे पहले भूमिहीनता की समस्या से निपटना होगा। साथ ही उचित रोजगार, जमीन अधिग्रहण की सही नीति और उसके साथ-साथ उचित पुनर्वास नीति भी बनानी होगी, और सबसे जरूरी है कि इनका सही तरीके से क्रियान्वयन भी होना चाहिए। यह विदित है कि अनेक जगहों पर भूमि अधिग्रहण को लेकर विवाद रहे हैं, चाहे बस्तर के लोहंडीगुडा में टाटा स्टील का प्रोजेक्ट हो, लासरदार सरोवर परियोजना हो या नंदीग्राम। सभी जगहों पर आम किसान या आदिवासियों को विश्वास में नहीं लिया गया और न ही उनके पुनर्वास पर विशेष ध्यान दिया गया। राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग तक उनके उचित पुनर्वास पर सवाल खड़ा कर चुका है।

विकास बिल्कुल होना चाहिए, पर गरीब लोगों, दलितों, किसानों और आदिवासियों के जीवन के मूल्य पर होने वाला विकास समस्याओं को ही जन्म देगा। फिर शंातिपूर्ण तरीके से अपनी आवाज उठाने वालों पर दमन इन लोगों को नक्सलवाद के समीप ही ले जाता है। मानवाधिकारों के लिए शांतिमय प्रतिरोध का दमन भी नक्सलवाद के लिए उर्वर जमीन तैयार करता है। हिंसा से सख्ती से निपटा जाए, लेकिन इस हिंसा के लिए जमीन कौन तैयार करता आ रहा है, इस पर भी ध्यान देने की जरूरत है। यह इशारा नेता, प्रशासन और पुलिस की तरफ है। जो नीतिया बनती भी हैं वे भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाती हैं। इसमें कोई शक नहीं कि सरकारी तंत्र नकारा और भ्रष्ट हो चुका है। गरीबी और महंगाई बेतहाशा बढ़ रही है, लेकिन अधिकारियों और नेताओं की जेब उसी अनुपात में मोटी होती जा रही है। आंकडे यह भी कहते हैं कि इस देश में हर साल करोड़पतियों की संख्या तो बढ रही है लेकिन गरीब और गरीब होते चले जा रहे हैं। इसके अलावा आदिवासियों को सामाजिक और सांस्कृतिक विघटन, शारीरिक शोषण आदि का भी सामना करना पड़ रहा है। छत्तीसगढ़ के मुख्यमत्री डॉं. रमन सिंह कहते हैं कि अगर बस्तर के आदिवासी इक्कीसवीं सदी में भी 18वीं सदी में जीने को मजबूर हैं तो इसके लिए केवल और केवल नक्सली जिम्मेदार हैं। लेकिन यह पूरा सच नहीं है। बस्तर के पिछड़ेपन के लिए जितना नक्सली जिम्मेदार हैं उससे कहीं अधिक हमारी सरकारें जिम्मेदार हैं। कितने दुर्भाग्य का विषय है कि सरकार को 40 साल बाद इस बात का एहसास होता है कि नक्सलवाद, आतंकवाद से भी बड़ा खतरा है। दूसरी तरफ नक्सलवादी भी निहित स्वाथरें की वजह से विकास में रोड़े अटका रहे हैं। वे अपने क्षेत्रों में सड़क आदि नहीं बनाने देना चाहते हैं क्योंकि इससे सुरक्षा बलों की उन तक पहुंच हो जाएगी। दूसरे उन्हें भय है कि अगर क्षेत्र का आर्थिक विकास होने लगेगा तो उनकी पूछ कम हो जाएगी।

सत्ता प्रतिष्ठान की जिम्मेदारी है कि ऐसी परिस्थितियों का निर्माण करे कि आम गरीब आदिवासी -किसान नक्सलवादियों के प्रभाव में न आ पाएं। आदिवासियों को भी स्वास्थ्य, शिक्षा और अन्य विकास चाहिए। उभरते हुए शक्तिमान भारत से यह मांग कोई ज्यादा नहीं है। लेकिन सवाल है कि क्या इसे पूरा करने के लिए शासक वर्ग गंभीर है ?

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