संजय दुबे
मीडिया बहुत पहले से ही कहता चला आ रहा है लेकिन अब सुप्रीम कोर्ट ने भी इस बात पर मुहर लगा दी है कि छत्तीसगढ़ में सरकार का आधे राज्य में शासन नहीं चलता है। सरकार अपनी नाक बचाने के लिए भले ही इस बात को स्वीकार न करे किंतु उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति आर वी रवीन्द्रन और एच एल गोखले ने शुक्रवार को एक जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान राज्य सरकार की खिंचाई करते हुए यह टिप्पणी की। बाल अधिनियम लागू करने के मामले में सरकारी वकील द्वारा किए गए दावे पर न्यायालय ने कहा है कि छत्तीसगढ़ के पचास फीसदी जिलों में सरकार है ही नहीं। देश के सर्वोच्च न्यायालय की यह टिप्पणी शासन की उन सब योजनाओं पर सवालिया निशान खड़ा कर रही है, जिसे राज्य सरकार केन्द्र से करोड़ो-अरबों रूपए लेकर क्रियान्वित करने का दावा करती चली आ रही है। जाहिर सी बात अगर वास्तव में राज्य में विकास हो रहा है तो नक्सलवाद क्यों पनप रहा है? केवल पनप ही नहीं रहा है अब तो वह तेजी से फल-फूल रहा है और देश का सर्वाधिक वामपंथी उग्रवाद प्रभावित राज्य का दर्जा पा चुका है। अगर हालात यही रहे तो जल्द ही यह भी कहा जाने लगेगा कि छत्तीसगढ़ के पचास फीसदी हिस्से में सरकार जन-विश्वास खो चुकी है।
डॉ. रमन सरकार की दूसरी पारी में जब ननकीराम कंवर गृहमंत्री बने तो उन्होंने मीडिया से कहा था कि राज्य में एक साल के भीतर नक्सलवाद का खात्मा हो जाएगा और अगर ऐसा नहीं हुआ तो वे पद छोड़ देंगे। लेकिन साल भर का वक्त कबका बीत गया और इस दरम्यान छत्तीसगढ़ में एक से एक बड़े नक्सली हमले हुए। यहां तक कि ताड़मेटला हमले के बाद केन्द्रीय गृहमंत्री पी चिदंबरम ने भी अपना इस्तीफा देने की पेशकश कर डाली। लेकिन हमारे राज्य के गृहमंत्री जी दुबक गए। आजकल यही हो रहा है उनके साथ, जब भी कोई बड़ा हादसा होता है श्री कंवर या तो भूमिगत हो जाते हैं या फिर मौन धारण कर लेते हैं। ये वही कंवर साहब हंै जो कुछ दिन पहले तक हर बड़े हमले के बाद अपनी प्रतिक्रिया में केवल एक ही डायलाग बोलते थे- यह नक्सलियों की कायराना हरकत है, इससे हमारे जवानों के मनोबल पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा। आज हालात ये हैं कि हाल ही नारायणपुर में हुए हमले की खबर मिलते ही मुख्यमंत्री ने आनन-फानन में अपने निवास पर मंत्रियों और वरिष्ठ अधिकारियों की बैठक बुलाई, किंतु हमारे गृहमंत्री अपने बंगले पर मौजूद होने के बाद भी इस बैठक में एक घंटा देर से आए। इनकी वजह उन्होंने यह बताई कि वे उस दौरान पूजा कर रहे थे। जिस राज्य में कुछ देर पहले हमले में 27 जवान शहीद हो गए हों वहां के गृहमंत्री प्रदेश की सुरक्षा व्यवस्था को लेकर बुलाई बैठक में देरी होने पर यह तर्क देते हैं कि पूजा भी जरूरी है। श्री कंवर जो एक साल में नक्सल समास्या खत्म करने का दावा करते अब हालात बेकाबू होता देख कहने लगे हैं कि नक्सल समस्या का हल राज्य सरकार के बूते की बात नहीं है। जी हां ऐसा ही बयान उन्होंने मीडिया के सामने इस हमले के बाद बस्तर क्षेत्र के दौरे के दौरान दिया।
यह तो हुई हमारे गृह मंत्री का बात अब थोड़ा नजर डालते हैं नक्सलियों की बढ़ती आमदरफ्त पर। आज ही नवभारत की लीड स्टोरी है- नक्सलियों ने राजधानी के मुहाने को घेरा। ताजा गुप्तचर सूचना के मुताबिक रायपुर जिले के मैनपुर, सिहावा, गरियाबंद, उदंती आदि क्षेत्रों में इन दिनों बड़ी संख्या में नक्सली मौजूद है और मौका मिलते ही किसी बड़ी घटना को अंजाम दे सकते हैं। रायपुर के पुलिस महानिरीक्षक मुकेश गुप्ता भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि इस इलाके में बड़ी तादात में नक्सलियों के होने की खबर है। करीब डेढ़ महीने पहले भी नक्सली इस इलाके में वन विभाग के एक भवन को विस्फोट कर उड़ा चुके हैं। नक्सलियों का राजधानी के इतने करीब पहुंचना निश्चित ही गंभीर चिंता का विषय है। हालांकि नक्सलियों के शहरी नेटवर्क के बारे में तो पहले भी काफी कुछ सामने आ चुका है। दुर्ग- भिलाई में हथियारों का जखीरा बरामद किया जा चुका है। एक के बाद एक हुई कई बड़ी वारदातों से यह तथ्य तो सामने आ चुका है कि नक्सलियों का सूचना तंत्र काफी तगड़ा है। दुर्ग रेंज के आईजी आर के विज भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि नक्सलियों का सूचना तंत्र पुलिस के सूचना तंत्र से काफी तेज है। हो भी क्यों नहीं हमारे पुलिस व्यवस्था में घुन जो लगा है। जाहिर सी बात है जब सीआरपीएफ के ही कुछ लोग यह जानते हुए कि उसका निशाना हमारे ही जवान होंगे, नक्सलियों को हथियार सप्लाई कर सकते हैं तो पुलिस के कुछ लोग नक्सलियों के लिए मुखबिरी भी करते होंगे।
ऑपरेशन ग्रीन हंट शुरू होने के बाद राज्य में हालात जिस तरह बेकाबू हो रहे हैं उसने इस अभियान के भविष्य पर प्रश्रचिन्ह लगा दिया है। इस ऑपरेशन के शुरू होने के पहले पंजाब के पूर्व पुलिस महानिदेशक और एक वर्ष तक छत्तीसगढ़ के सुरक्षा सलाहाकार रहे सुपर कॉप केपीएस गिल ने भी तहलका डॉट काम को दिए एक इंटरव्यू में ऑपरेशन ग्रीन हंट की सफलता पर संदेह जताया था। उन्होंने तभी कहा था कि बस्तर के मौजूदा हालात में यह ऑपरेशन सफल होना मुश्किल है। लगता है कि हमारे डॉक्टर मुख्यमंत्री जी से छत्तीसगढ़ की नब्ज पहचाने में कुछ गलती हो रही है, तभी नक्सली मुद्दे पर उन्हें लगातार असफलता का मुंह देखना पड़ रहा है। नक्सलवाद के नाम पर केन्द्र से करोड़ो-अरबों रूपए तो मिल रहे हैं लेकिन विकास कागजी ही है।
सरकारी फाईलों में, गांव का मौसम गुलाबी है
मगर ये आंकड़े झूठे हैं, ये दावे किताबी हैं ।
रायगढ़, कोरबा और जांजगीर चांपा जैसे जिलों में आए दिन निजी संयंत्रों की जन-सुनवाई के दौरान लोगों का जन आक्रोश भड़क रहा है। यहां तक कि प्रस्तावित संयंत्रों को जमीन देने के मामले में ग्रामीण मरने-मारने पर उतारू हो रहे हैं। हाल ही में रायगढ़ में एसकेएस स्टील एंड पॉवर कंपनी के प्रस्तावित प्लांट का विरोध कर रहे ग्रामीणों ने संयंत्र के महाप्रबंधक सहित चार अधिकारियों को करीब आठ घंटों तक बंधक बनाए रखा। वहीं जांजगीर में एक पॉवर प्लांट का विरोध कर रहे ग्रामीणों ने संयंत्र के अधिकारियों से मारपीट भी। इस सिलसिले में पुलिस ने डेढ़ सौ से ज्यादा ग्रामीणों को गिरफ्तार भी किया था। आखिर सरकार ऐसे हालात पैदा क्यों होने दे रही है। राज्य सरकार ने खरबों के एमओयू किये हैं और अब वे कंपनियां अपना संयंत्र बनाने के लिए पीढ़ी-दर-पीढ़ी से रह रहे ग्रामीणों को बेदखल करने पर तुली हुई हैं। सरकार इस बात को क्यों भूल जा रही है कि ग्रामीणों का यही असंतोष उन क्षेत्रों में भी नक्सलवाद को जन्म दे सकता है जहां अभी नक्सलवाद नहीं है या आंशिक रूप में है।
यह बात तो समझ में आती है कि नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में विकास कार्य करवाना थोड़ा मुश्किल है लेकिन जो क्षेत्र अभी नक्सलियों की पहुंच से दूर हैं वहां क्यों नहीं विकास हो रहा रहा है। क्या सरकार इस बात का इंतजार कर रही है कि बाकी क्षेत्रों में भी नक्सलवाद पनपे तभी वहां विकास को प्राथमिकता दी जाएगी।
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SANJAY DUBEY, JOURNALIST
I am a journalist in Raipur, Chhattisgarh, more than 12years.I have been associated with Swatantra Mat, Jabalpur, The Hitavada, Jabalpur, Doordarshan, All India Radio Raipur. I have reported various important events during my job and I am looking forward to have better chance to report basic issues in the time to come.
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Saturday, July 10, 2010
Wednesday, June 30, 2010
कब तक जारी रहेगा यह खूनी खेल.....
By Sanjay Dubey
29 जून 2010 - घात लगाकर बैठे नक्सलियों ने नारायणपुर जिले के धौड़ाई क्षेत्र में सर्चिंग पर निकले जवानों को निशाना बनाया, 27 जवान शहीद.... 6 अप्रैल 2010 - नक्सलियों ने दंतेवाड़ा में मकराना के जंगलों में केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) की एक टुकड़ी पर हमला किया, 76 जवान शहीद.. तारीख 8 मई 2010 - बीजापुर जिले में नक्सलियों ने सीआरपीएफ के बुलेट प्रूफ वाहन को बारूदी सुरंग से उड़ा दिया, 7 जवानों की मौत हो गई.. तारीख 16 मई 2010 राजनांदगांव के तेरेगांव के नजदीक नक्सलियों ने मुखबिरी के आरोप में सरपंच सहित छह ग्रामीणों को मौत के घाट उतार दिया.. ..ये वे तारीखें हैं, जो पिछले तीन महीनों में नक्सलियों के लगातार हमलों और सुरक्षा बलों के जवानों या आम आदमी के खून से लाल हुई हैं। नक्सलवाद की आग में झुलस रहा छत्तीसगढ़ एक बार फिर लाचारी और बेबसी की रोनी सूरत बनाकर देश के सामने खड़ा है। पिछले कुछ महीनों में हुए इन बड़े हमलों ने यह तो साबित कर दिया है कि नक्सलियों के सामने सरकार का सूचना तंत्र बेहद कमजोर है। और अपने मजबूत सूचना नेटवर्क के जरिए नक्सली एंबुश लगाकर आए दिन बड़ी वारदातों को अंजाम देकर साफ बच निकलते हैं। सैकड़ों की तादात में नक्सली इकठ्ठा होते हैं और बेखौफ होकर अपना काम कर चल देते हैं, लेकिन पुलिस को इसकी कोई भनक तक नहीं लगती। आखिर कब तक जारी रहेगा यह खूनी खेल, शायद इसका जवाब न राज्य सरकार के पास है और न केन्द्र सरकार के पास। बीते दिनों हुई कुछ घटनाओं से यह तो साफ हो गया है कि हमारे जवान आसानी से नक्सलियों की चाल में फंस जाते हैं। पुलिस दावा करती है कि हमले में सैकड़ों नक्सली शामिल थे, लेकिन सर्चिंग में इतनी बड़ी तादाद होने के बावजूद उसके हाथ एक भी नक्सली नहीं आते। कारण साफ है जितने भी बड़े नक्सली हमले हुए हैं, वे इलाके पूरी तरह नक्सल प्रभावित हैं। वारदात में शामिल हार्डकोर नक्सलियों की संख्या तो गिनी-चुनी रहती है बाकी सब ग्रामीण होते हैं, जो नक्सलियों के दबाव में या उनसे प्रभावित होकर उनका साथ देते हैं और घटना को अंजाम देने बाद आसपास के अपने गांवों में चले जाते हैं और पुलिस को कुछ भी हाथ नहीं लगता है। इस उग्रवाद को समझने के लिए इसके मूल में जाना आवश्यक है।
नक्सलवाद अपने मूल में कानून और व्यवस्था की समस्या नहीं, बल्कि राजनीतिक और आर्थिक समस्या के साथ-साथ सामाजिक और सास्कृतिक समस्या भी है। इसका समाधान राजनीतिक तरीकों से आर्थिक-सामाजिक विकास और सास्कृतिक समायोजन द्वारा ही हो सकता है। 1967 में दार्जिलिंग जिले के एक गांव नक्सलबाड़ी से शुरू होने के कारण इस संघर्ष को नक्सलवाद कहा जाने लगा। इसमें नक्सलवादियों और शासन द्वारा व्यापक हिंसा हुई। उस समय बुद्धिजीवियों, प्रेसिडेंसी कालेज कोलकाता और सेंट स्टीफेंस कालेज, दिल्ली के छात्रों ने इसका खुल कर समर्थन किया। कुछ ही वषों में 12 प्रदेशों के 150 जिलों में नक्सलवादी फैल गए। वे बिहार, उड़ीसा, झारखंड, छतीसगढ़, आध्र प्रदेश होते हुए कर्नाटक तक एक सघन लाल गलियारा जैसा बना चुके हैं। इनकी विचारधारा चीन के माओ त्से तुंग से प्रभावित है जिसके अनुसार सत्ता बंदूक के नली से निकलती है।
सवाल यह है कि नक्सलवाद क्यों फैलता जा रहा है और सत्ता प्रतिष्ठान का इसके प्रति क्या रुख है। दरअसल, नक्सलवाद के पनपने में मूल रूप से सत्ता प्रतिष्ठान ही जिम्मेदार है। योजना आयोग ने 2006 में नक्सलवाद की समस्या से निपटने के लिए डी. बंदोपाध्याय की अध्यक्षता में एक समिति गठित की थी। समिति ने अप्रैल 2008 को अपनी रिपोर्ट दी। इसमें विस्तार से उल्लेख है कि किस तरह सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक रूप से आदिवासी और दलित समाज पीडि़त है। उनकी समस्याओं को नक्सलवादी तत्काल समाधान करने की कोशिश करते हैं। इस प्रकार वे उन लोगों में अपनी पैठ बनाते जा रहे हैं। सत्ता प्रतिष्ठान न इन समस्याओं के प्रति जागरूक है और न ही समर्पित। इस रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से कहा है कि गरीबी और शोषण का नक्सलवाद से सीधा संबंध है। रिपोर्ट में स्पष्ट कहा गया है कि सबसे पहले भूमिहीनता की समस्या से निपटना होगा। साथ ही उचित रोजगार, जमीन अधिग्रहण की सही नीति और उसके साथ-साथ उचित पुनर्वास नीति भी बनानी होगी, और सबसे जरूरी है कि इनका सही तरीके से क्रियान्वयन भी होना चाहिए। यह विदित है कि अनेक जगहों पर भूमि अधिग्रहण को लेकर विवाद रहे हैं, चाहे बस्तर के लोहंडीगुडा में टाटा स्टील का प्रोजेक्ट हो, लासरदार सरोवर परियोजना हो या नंदीग्राम। सभी जगहों पर आम किसान या आदिवासियों को विश्वास में नहीं लिया गया और न ही उनके पुनर्वास पर विशेष ध्यान दिया गया। राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग तक उनके उचित पुनर्वास पर सवाल खड़ा कर चुका है।
विकास बिल्कुल होना चाहिए, पर गरीब लोगों, दलितों, किसानों और आदिवासियों के जीवन के मूल्य पर होने वाला विकास समस्याओं को ही जन्म देगा। फिर शंातिपूर्ण तरीके से अपनी आवाज उठाने वालों पर दमन इन लोगों को नक्सलवाद के समीप ही ले जाता है। मानवाधिकारों के लिए शांतिमय प्रतिरोध का दमन भी नक्सलवाद के लिए उर्वर जमीन तैयार करता है। हिंसा से सख्ती से निपटा जाए, लेकिन इस हिंसा के लिए जमीन कौन तैयार करता आ रहा है, इस पर भी ध्यान देने की जरूरत है। यह इशारा नेता, प्रशासन और पुलिस की तरफ है। जो नीतिया बनती भी हैं वे भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाती हैं। इसमें कोई शक नहीं कि सरकारी तंत्र नकारा और भ्रष्ट हो चुका है। गरीबी और महंगाई बेतहाशा बढ़ रही है, लेकिन अधिकारियों और नेताओं की जेब उसी अनुपात में मोटी होती जा रही है। आंकडे यह भी कहते हैं कि इस देश में हर साल करोड़पतियों की संख्या तो बढ रही है लेकिन गरीब और गरीब होते चले जा रहे हैं। इसके अलावा आदिवासियों को सामाजिक और सांस्कृतिक विघटन, शारीरिक शोषण आदि का भी सामना करना पड़ रहा है। छत्तीसगढ़ के मुख्यमत्री डॉं. रमन सिंह कहते हैं कि अगर बस्तर के आदिवासी इक्कीसवीं सदी में भी 18वीं सदी में जीने को मजबूर हैं तो इसके लिए केवल और केवल नक्सली जिम्मेदार हैं। लेकिन यह पूरा सच नहीं है। बस्तर के पिछड़ेपन के लिए जितना नक्सली जिम्मेदार हैं उससे कहीं अधिक हमारी सरकारें जिम्मेदार हैं। कितने दुर्भाग्य का विषय है कि सरकार को 40 साल बाद इस बात का एहसास होता है कि नक्सलवाद, आतंकवाद से भी बड़ा खतरा है। दूसरी तरफ नक्सलवादी भी निहित स्वाथरें की वजह से विकास में रोड़े अटका रहे हैं। वे अपने क्षेत्रों में सड़क आदि नहीं बनाने देना चाहते हैं क्योंकि इससे सुरक्षा बलों की उन तक पहुंच हो जाएगी। दूसरे उन्हें भय है कि अगर क्षेत्र का आर्थिक विकास होने लगेगा तो उनकी पूछ कम हो जाएगी।
सत्ता प्रतिष्ठान की जिम्मेदारी है कि ऐसी परिस्थितियों का निर्माण करे कि आम गरीब आदिवासी -किसान नक्सलवादियों के प्रभाव में न आ पाएं। आदिवासियों को भी स्वास्थ्य, शिक्षा और अन्य विकास चाहिए। उभरते हुए शक्तिमान भारत से यह मांग कोई ज्यादा नहीं है। लेकिन सवाल है कि क्या इसे पूरा करने के लिए शासक वर्ग गंभीर है ?
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29 जून 2010 - घात लगाकर बैठे नक्सलियों ने नारायणपुर जिले के धौड़ाई क्षेत्र में सर्चिंग पर निकले जवानों को निशाना बनाया, 27 जवान शहीद.... 6 अप्रैल 2010 - नक्सलियों ने दंतेवाड़ा में मकराना के जंगलों में केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) की एक टुकड़ी पर हमला किया, 76 जवान शहीद.. तारीख 8 मई 2010 - बीजापुर जिले में नक्सलियों ने सीआरपीएफ के बुलेट प्रूफ वाहन को बारूदी सुरंग से उड़ा दिया, 7 जवानों की मौत हो गई.. तारीख 16 मई 2010 राजनांदगांव के तेरेगांव के नजदीक नक्सलियों ने मुखबिरी के आरोप में सरपंच सहित छह ग्रामीणों को मौत के घाट उतार दिया.. ..ये वे तारीखें हैं, जो पिछले तीन महीनों में नक्सलियों के लगातार हमलों और सुरक्षा बलों के जवानों या आम आदमी के खून से लाल हुई हैं। नक्सलवाद की आग में झुलस रहा छत्तीसगढ़ एक बार फिर लाचारी और बेबसी की रोनी सूरत बनाकर देश के सामने खड़ा है। पिछले कुछ महीनों में हुए इन बड़े हमलों ने यह तो साबित कर दिया है कि नक्सलियों के सामने सरकार का सूचना तंत्र बेहद कमजोर है। और अपने मजबूत सूचना नेटवर्क के जरिए नक्सली एंबुश लगाकर आए दिन बड़ी वारदातों को अंजाम देकर साफ बच निकलते हैं। सैकड़ों की तादात में नक्सली इकठ्ठा होते हैं और बेखौफ होकर अपना काम कर चल देते हैं, लेकिन पुलिस को इसकी कोई भनक तक नहीं लगती। आखिर कब तक जारी रहेगा यह खूनी खेल, शायद इसका जवाब न राज्य सरकार के पास है और न केन्द्र सरकार के पास। बीते दिनों हुई कुछ घटनाओं से यह तो साफ हो गया है कि हमारे जवान आसानी से नक्सलियों की चाल में फंस जाते हैं। पुलिस दावा करती है कि हमले में सैकड़ों नक्सली शामिल थे, लेकिन सर्चिंग में इतनी बड़ी तादाद होने के बावजूद उसके हाथ एक भी नक्सली नहीं आते। कारण साफ है जितने भी बड़े नक्सली हमले हुए हैं, वे इलाके पूरी तरह नक्सल प्रभावित हैं। वारदात में शामिल हार्डकोर नक्सलियों की संख्या तो गिनी-चुनी रहती है बाकी सब ग्रामीण होते हैं, जो नक्सलियों के दबाव में या उनसे प्रभावित होकर उनका साथ देते हैं और घटना को अंजाम देने बाद आसपास के अपने गांवों में चले जाते हैं और पुलिस को कुछ भी हाथ नहीं लगता है। इस उग्रवाद को समझने के लिए इसके मूल में जाना आवश्यक है।
नक्सलवाद अपने मूल में कानून और व्यवस्था की समस्या नहीं, बल्कि राजनीतिक और आर्थिक समस्या के साथ-साथ सामाजिक और सास्कृतिक समस्या भी है। इसका समाधान राजनीतिक तरीकों से आर्थिक-सामाजिक विकास और सास्कृतिक समायोजन द्वारा ही हो सकता है। 1967 में दार्जिलिंग जिले के एक गांव नक्सलबाड़ी से शुरू होने के कारण इस संघर्ष को नक्सलवाद कहा जाने लगा। इसमें नक्सलवादियों और शासन द्वारा व्यापक हिंसा हुई। उस समय बुद्धिजीवियों, प्रेसिडेंसी कालेज कोलकाता और सेंट स्टीफेंस कालेज, दिल्ली के छात्रों ने इसका खुल कर समर्थन किया। कुछ ही वषों में 12 प्रदेशों के 150 जिलों में नक्सलवादी फैल गए। वे बिहार, उड़ीसा, झारखंड, छतीसगढ़, आध्र प्रदेश होते हुए कर्नाटक तक एक सघन लाल गलियारा जैसा बना चुके हैं। इनकी विचारधारा चीन के माओ त्से तुंग से प्रभावित है जिसके अनुसार सत्ता बंदूक के नली से निकलती है।
सवाल यह है कि नक्सलवाद क्यों फैलता जा रहा है और सत्ता प्रतिष्ठान का इसके प्रति क्या रुख है। दरअसल, नक्सलवाद के पनपने में मूल रूप से सत्ता प्रतिष्ठान ही जिम्मेदार है। योजना आयोग ने 2006 में नक्सलवाद की समस्या से निपटने के लिए डी. बंदोपाध्याय की अध्यक्षता में एक समिति गठित की थी। समिति ने अप्रैल 2008 को अपनी रिपोर्ट दी। इसमें विस्तार से उल्लेख है कि किस तरह सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक रूप से आदिवासी और दलित समाज पीडि़त है। उनकी समस्याओं को नक्सलवादी तत्काल समाधान करने की कोशिश करते हैं। इस प्रकार वे उन लोगों में अपनी पैठ बनाते जा रहे हैं। सत्ता प्रतिष्ठान न इन समस्याओं के प्रति जागरूक है और न ही समर्पित। इस रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से कहा है कि गरीबी और शोषण का नक्सलवाद से सीधा संबंध है। रिपोर्ट में स्पष्ट कहा गया है कि सबसे पहले भूमिहीनता की समस्या से निपटना होगा। साथ ही उचित रोजगार, जमीन अधिग्रहण की सही नीति और उसके साथ-साथ उचित पुनर्वास नीति भी बनानी होगी, और सबसे जरूरी है कि इनका सही तरीके से क्रियान्वयन भी होना चाहिए। यह विदित है कि अनेक जगहों पर भूमि अधिग्रहण को लेकर विवाद रहे हैं, चाहे बस्तर के लोहंडीगुडा में टाटा स्टील का प्रोजेक्ट हो, लासरदार सरोवर परियोजना हो या नंदीग्राम। सभी जगहों पर आम किसान या आदिवासियों को विश्वास में नहीं लिया गया और न ही उनके पुनर्वास पर विशेष ध्यान दिया गया। राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग तक उनके उचित पुनर्वास पर सवाल खड़ा कर चुका है।
विकास बिल्कुल होना चाहिए, पर गरीब लोगों, दलितों, किसानों और आदिवासियों के जीवन के मूल्य पर होने वाला विकास समस्याओं को ही जन्म देगा। फिर शंातिपूर्ण तरीके से अपनी आवाज उठाने वालों पर दमन इन लोगों को नक्सलवाद के समीप ही ले जाता है। मानवाधिकारों के लिए शांतिमय प्रतिरोध का दमन भी नक्सलवाद के लिए उर्वर जमीन तैयार करता है। हिंसा से सख्ती से निपटा जाए, लेकिन इस हिंसा के लिए जमीन कौन तैयार करता आ रहा है, इस पर भी ध्यान देने की जरूरत है। यह इशारा नेता, प्रशासन और पुलिस की तरफ है। जो नीतिया बनती भी हैं वे भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाती हैं। इसमें कोई शक नहीं कि सरकारी तंत्र नकारा और भ्रष्ट हो चुका है। गरीबी और महंगाई बेतहाशा बढ़ रही है, लेकिन अधिकारियों और नेताओं की जेब उसी अनुपात में मोटी होती जा रही है। आंकडे यह भी कहते हैं कि इस देश में हर साल करोड़पतियों की संख्या तो बढ रही है लेकिन गरीब और गरीब होते चले जा रहे हैं। इसके अलावा आदिवासियों को सामाजिक और सांस्कृतिक विघटन, शारीरिक शोषण आदि का भी सामना करना पड़ रहा है। छत्तीसगढ़ के मुख्यमत्री डॉं. रमन सिंह कहते हैं कि अगर बस्तर के आदिवासी इक्कीसवीं सदी में भी 18वीं सदी में जीने को मजबूर हैं तो इसके लिए केवल और केवल नक्सली जिम्मेदार हैं। लेकिन यह पूरा सच नहीं है। बस्तर के पिछड़ेपन के लिए जितना नक्सली जिम्मेदार हैं उससे कहीं अधिक हमारी सरकारें जिम्मेदार हैं। कितने दुर्भाग्य का विषय है कि सरकार को 40 साल बाद इस बात का एहसास होता है कि नक्सलवाद, आतंकवाद से भी बड़ा खतरा है। दूसरी तरफ नक्सलवादी भी निहित स्वाथरें की वजह से विकास में रोड़े अटका रहे हैं। वे अपने क्षेत्रों में सड़क आदि नहीं बनाने देना चाहते हैं क्योंकि इससे सुरक्षा बलों की उन तक पहुंच हो जाएगी। दूसरे उन्हें भय है कि अगर क्षेत्र का आर्थिक विकास होने लगेगा तो उनकी पूछ कम हो जाएगी।
सत्ता प्रतिष्ठान की जिम्मेदारी है कि ऐसी परिस्थितियों का निर्माण करे कि आम गरीब आदिवासी -किसान नक्सलवादियों के प्रभाव में न आ पाएं। आदिवासियों को भी स्वास्थ्य, शिक्षा और अन्य विकास चाहिए। उभरते हुए शक्तिमान भारत से यह मांग कोई ज्यादा नहीं है। लेकिन सवाल है कि क्या इसे पूरा करने के लिए शासक वर्ग गंभीर है ?
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Friday, June 4, 2010
नक्सली दहशत से जनगणना मुश्किल
छत्तीसगढ के बस्तर संभाग के तीन अति संवेदनशील जिलों के तीन सौ से अधिक गांवों में जनगणना कार्य किया जाना नामुमकिन है तथा कुछ इलाकों में जनगणना कार्य के लिए
हेलीकाप्टर की मांग की गई है 1 नक्सली बहुल इन संवेदनशील इलाकों के ग्राम प्रमुख और पंचायत
प्रतिनिधि इस कार्य में सहयोग करने से कतरा रहे हैं 1 इन क्षेत्रों में
नक्सली जनगणना कर्मचारियों को लौटा रहे हैं तथा उनके दस्तावेजों
को आग के हवाले कर रहे हैं 1
आधिकारिक जानकारी के अनुसार बीजापुर जिले के 214 गांव में
जनगणना कार्य किया जाना नामुमकिन लग रहा है जिसमें
भोपालपटनम तहसील के 70 .बीजापुर तहसील के 40. भैरमगढ
तहसील के 40 तथा उसूर विकासखंड के 60 गांव शामिल हैं 1 भैरमगढ
इलाके में नक्सलियों ने कर्मचारियों के दस्तावेज लूटकर उसे आग के
हवाले कर दिये तथा इन गांवों में पहुंचे कर्मचारियों को नक्सलियों ने
जनगणना कार्य नहीं किए जाने की चेतावनी भी दी और उन्हें वापस
लौटा दिया1
जिला प्रशासन ने इस स्थिति से निपटने के लिए ग्राम प्रमुख और
पंचायत प्रतिनिधियों से संपर्क कर संवेदनशील इलाके में जनगणना
कार्य कराने का अनुरोध किया है लेकिन लोगों ने इसे नजरअंदाज कर
दिया1 अब प्रशासन द्वारा साप्ताहिक हाट बाजार में जनगणना की
मुनादी करने की तैयारी की जा रही है 1
दंतेवाडा जिले के कोंटा विकासखंड की 57 ग्राम पंचायतों के
लगभग दो सौ अतिसंवेदनशील इलाकों में कर्मचारियों ने अपनी जान
जोखिम में डाल जनगणना कार्य को बखूबी निभाया1 इसके बावजूद
इस इलाके के लगभग पचास गांवों में जनगणना कार्य नहीं हो पाया 1
कुछ इलाकों में पहुंचने के लिये हेलीकाप्टर की मांग की गई है 1 साथ
ही साप्ताहिक हाट बाजारों में भी जनगणना कार्य किए जाने की तैयारी
भी चल रही है 1
नारायणपुर जिले के ओरछा विकासखंड के 337 गांवों में से 75
गांवों में जनगणना कर्मचारी किसी भी स्थिति में जनगणना कार्य को
संपन्न नहीं करा सकते 1 नक्सलियों ने इन इलाकों से कर्मचारियों को
भगा दिया और 26 गांव में कर्मचारियों का सामान लूट लिये तथा 49
गांवों से कर्मचारियों को वापस भेज दिया1 अब यहां के हाट बाजार में
जनगणना कार्य कराए जाने के लिये तैयारी की जा रही है 1
इधर संवेदनशील क्षेत्रों से लौटे कर्मचारियों ने बताया कि दहशत भरे
माहौल में इन इलाकों में वे जनगणना कार्य के लिऐ गये थे लेकिन
नक्सलियों ने उन्हें लौटा दिया1
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हेलीकाप्टर की मांग की गई है 1 नक्सली बहुल इन संवेदनशील इलाकों के ग्राम प्रमुख और पंचायत
प्रतिनिधि इस कार्य में सहयोग करने से कतरा रहे हैं 1 इन क्षेत्रों में
नक्सली जनगणना कर्मचारियों को लौटा रहे हैं तथा उनके दस्तावेजों
को आग के हवाले कर रहे हैं 1
आधिकारिक जानकारी के अनुसार बीजापुर जिले के 214 गांव में
जनगणना कार्य किया जाना नामुमकिन लग रहा है जिसमें
भोपालपटनम तहसील के 70 .बीजापुर तहसील के 40. भैरमगढ
तहसील के 40 तथा उसूर विकासखंड के 60 गांव शामिल हैं 1 भैरमगढ
इलाके में नक्सलियों ने कर्मचारियों के दस्तावेज लूटकर उसे आग के
हवाले कर दिये तथा इन गांवों में पहुंचे कर्मचारियों को नक्सलियों ने
जनगणना कार्य नहीं किए जाने की चेतावनी भी दी और उन्हें वापस
लौटा दिया1
जिला प्रशासन ने इस स्थिति से निपटने के लिए ग्राम प्रमुख और
पंचायत प्रतिनिधियों से संपर्क कर संवेदनशील इलाके में जनगणना
कार्य कराने का अनुरोध किया है लेकिन लोगों ने इसे नजरअंदाज कर
दिया1 अब प्रशासन द्वारा साप्ताहिक हाट बाजार में जनगणना की
मुनादी करने की तैयारी की जा रही है 1
दंतेवाडा जिले के कोंटा विकासखंड की 57 ग्राम पंचायतों के
लगभग दो सौ अतिसंवेदनशील इलाकों में कर्मचारियों ने अपनी जान
जोखिम में डाल जनगणना कार्य को बखूबी निभाया1 इसके बावजूद
इस इलाके के लगभग पचास गांवों में जनगणना कार्य नहीं हो पाया 1
कुछ इलाकों में पहुंचने के लिये हेलीकाप्टर की मांग की गई है 1 साथ
ही साप्ताहिक हाट बाजारों में भी जनगणना कार्य किए जाने की तैयारी
भी चल रही है 1
नारायणपुर जिले के ओरछा विकासखंड के 337 गांवों में से 75
गांवों में जनगणना कर्मचारी किसी भी स्थिति में जनगणना कार्य को
संपन्न नहीं करा सकते 1 नक्सलियों ने इन इलाकों से कर्मचारियों को
भगा दिया और 26 गांव में कर्मचारियों का सामान लूट लिये तथा 49
गांवों से कर्मचारियों को वापस भेज दिया1 अब यहां के हाट बाजार में
जनगणना कार्य कराए जाने के लिये तैयारी की जा रही है 1
इधर संवेदनशील क्षेत्रों से लौटे कर्मचारियों ने बताया कि दहशत भरे
माहौल में इन इलाकों में वे जनगणना कार्य के लिऐ गये थे लेकिन
नक्सलियों ने उन्हें लौटा दिया1
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Friday, May 21, 2010
आत्मघाती दस्ते बना रहे नक्सली
श्रीलंका से भागे लिट्टे के कई हार्ड कोर कमांडर न केवल नक्सलियों को मानव बम बना रहे हैं बल्कि उन्हें गुरिल्ला वार और हथियार चलाने के गुर भी सिखा रहे हैं। इससे भी खतरनाक तथ्य यह है कि पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई नक्सलियों को बड़े पैमाने पर आधुनिक हथियार और फंड मुहैया करा रही है। खुफिया नजर में रेड तालिबान कहे जाने वाले नक्सलियों ने अब अरबन सेल गठित कर रेड कारिडोर पर ध्यान केंद्रति कर रहे हैं।
फिया सूत्रों के अनुसार नक्सलियों की बढ़ रही ताकत का कारण पाक खुफिया एजेंसी द्वारा धन मुहैया कराना और लश्कर-ए-तय्यबा द्वारा हथियार मुहैया कराना है। अत्याधुनिक हथियारों से इनके हाथ मजबूत हो गए हैं। सूत्रों के अनुसार श्रीलंका में पस्त हुए लिट्टे के कई हार्ड कोर कमांडर अब नक्सलियों के संपर्क में आ गए हैं। श्रीलंका से भागकर लिट्टे के लोग आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और उड़ीसा के समुद्री रास्ते से भारत आ गए हैं। वे नक्सलियों के गुरू बन गए हैं। श्रीलंका से भागे लिट्टे के लोग नक्सलियों के ट्रेनर बन गए हैं। वे उन्हें गुरिल्ला वार और हथियार चलाने की ट्रनिंग दे रहे हैं। नक्सलियों को ये लोग मध्य और दक्षिण भारत के दूर दराज इलाकों में प्रशिक्षण दे रहे हैं। सूत्रों के अनुसार नक्सलियों को 40 से ज्यादा एलटीटीई ट्रेनर प्रशिक्षित कर रहे हैं। मध्य और दक्षिण भारत के कुछ भाग पर नक्सलियों का पूरा वर्चस्व है।
सूत्रों के अनुसार नक्सली अब आत्मघाती दस्ता भी तैयार कर रहा है। इसके लिए उन्हें लिट्टे द्वारा ट्रेनिंग दी जा रही है। नक्सली कैडर करीब 25 हजार तक पहुंच गई है। इसमें लगभग सात हजार एलटीटीई द्वारा गुरिल्ला वार और हथियार चलाने में प्रशिक्षित हैं। सूत्रों के अनुसार पाक आतंकवादियों की तरह अब नक्सली भी हर घटना का वीडियो बना कर देखते हैं। उससे आंकते हैं कि किसने क्या और कितना काम किया।
उसी के हिसाब से उन्हें प्रोन्नति दी जाती है। नक्सलियों ने अब लड़ने के साथ-साथ अपना ध्यान शहरी क्षेत्र पर केंद्रित किया है। इसके लिए अरबन सेल गठित किया है। इसका काम विश्वविघालय में गरीब छात्रों पर डोरे डालना और प्रतिभावान छात्रों को थिंक टैंक के रूप में जोड़ना है। ताकि वे राजनीति से लेकर तमाम बुद्धिजीवी क्षेत्र में घुस सकें और पर्दे के पीछे उनकी मदद करें। यह खुलासा खुफिया विभाग के हाथ लगी की नक्सलियों की किताब से हुआ है। खुफिया विभाग ने केंद्र को चेताया है कि नक्सली अब अपना नया कार्य क्षेत्र बनाना शुरू किया है। वे अब औघोगिक क्षेत्र और विशेष आर्थिक जोन पर अपनी ताकत झोकेंगे। यहां उनको टारगेट करना आसान होगा।
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Sunday, March 28, 2010
तार पर लटककर जाते हैं स्कूल
स्कूल जाने के लिए बच्चों को आपने पैदल चलते, तो कभी साइकिल, ऑटोरिक्शा या फिर बस की सवारी करते कई बार देखा होगा। लेकिन यह जानकर आपको आश्चर्य होगा कि दुनिया में एक स्थान ऎसा भी है, जहां स्कूल जाना इतना आसान नहीं है। जी हां, यहां बच्चों को पहाडियों के बीच जिप तारों पर घिर्री की सहायता से लटकते हुए करीब 40 मील प्रति घंटे की गति से रास्ता तय करना पडता है, जिससे वे नियमित रूप से कक्षाओं तक पहुंच सकें।
'डेली मेल' की खबर के अनुसार कोलंबिया में रियो नेग्रो नदी से करीब 400 मीटर ऊंचाई पर इन तारों की व्यवस्था है। दूसरे छोर पर पहुंचने के लिए बच्चे आधे मील की दूरी तय करते हैं। राजधानी बोगोटा से 40 मील दक्षिण-पूर्व पर स्थित इस क्षेत्र में रह रहे कुछ परिवारों के लिए यहां एक घाटी को दूसरी घाटी से जोडने के लिए इस तरह के 12 स्टील केबल एकमात्र जरिया हैं।
बताया जा रहा है कि सबसे पहले जर्मनी के अन्वेषणकर्ता अलेक्जेंडर वॉन हम्बोल्ट ने 1804 में इन विशेष रास्तों को देखा था। तब इन्हें पारंपरिक रूप से सन (हैंप) से बनाया जाता था। बाद में इनकी जगह स्टील केबल्स लगाए गए। इसके बाद यहां लोगों ने खेती और पशुपालन करने की शुरूआत कर दी।
आवाजाही का एकमात्र जरिया वर्तमान में यहां रह रहे सभी लोगों के लिए दूसरे स्थान तक पहंुचने के लिए कोई अन्य जरिया नहीं है। ये सभी पूरी तरह से इन्हीं केबल्स पर निर्भर हैं। किसानों को अपने उत्पादों को अन्य स्थानों पर पहंुचाना हो, या फिर नन्हे बच्चों को स्कूल जाना हो, सभी को इन्हीं तारों से होकर गुजरना होता है। कई बार बच्चों को गति को नियंत्रित करने के लिए खुद को जूट बैग में बैठाकर कुल्हाडी जैसे यंत्र की मदद से संतुलन बनाते हुए चलते हुए भी देखा जा सकता है।
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'डेली मेल' की खबर के अनुसार कोलंबिया में रियो नेग्रो नदी से करीब 400 मीटर ऊंचाई पर इन तारों की व्यवस्था है। दूसरे छोर पर पहुंचने के लिए बच्चे आधे मील की दूरी तय करते हैं। राजधानी बोगोटा से 40 मील दक्षिण-पूर्व पर स्थित इस क्षेत्र में रह रहे कुछ परिवारों के लिए यहां एक घाटी को दूसरी घाटी से जोडने के लिए इस तरह के 12 स्टील केबल एकमात्र जरिया हैं।
बताया जा रहा है कि सबसे पहले जर्मनी के अन्वेषणकर्ता अलेक्जेंडर वॉन हम्बोल्ट ने 1804 में इन विशेष रास्तों को देखा था। तब इन्हें पारंपरिक रूप से सन (हैंप) से बनाया जाता था। बाद में इनकी जगह स्टील केबल्स लगाए गए। इसके बाद यहां लोगों ने खेती और पशुपालन करने की शुरूआत कर दी।
आवाजाही का एकमात्र जरिया वर्तमान में यहां रह रहे सभी लोगों के लिए दूसरे स्थान तक पहंुचने के लिए कोई अन्य जरिया नहीं है। ये सभी पूरी तरह से इन्हीं केबल्स पर निर्भर हैं। किसानों को अपने उत्पादों को अन्य स्थानों पर पहंुचाना हो, या फिर नन्हे बच्चों को स्कूल जाना हो, सभी को इन्हीं तारों से होकर गुजरना होता है। कई बार बच्चों को गति को नियंत्रित करने के लिए खुद को जूट बैग में बैठाकर कुल्हाडी जैसे यंत्र की मदद से संतुलन बनाते हुए चलते हुए भी देखा जा सकता है।
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Friday, March 19, 2010
उपेक्षित धरोहर, बेसुध सरकार
दक्षिण कोसल के अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त पुरातात्विक स्थलों में की सूची में सिरपुर का स्थान सर्वोच्च है। महानदी के तट पर स्थित सिरपुर अतीत में सदियों से सांस्कृतिक विविधता एवं वास्तुकला का केन्द्र रहा है। सोमवंशी शासकों के काल में इसे दक्षिण कोसल की राजधानी होने का गौरव भी प्राप्त था। सातवीं सदी में चीन के महान पर्यटक तथा विद्वान ह्वेनसांग ने सिरपुर की यात्रा की थी। उनके अनुसार सिरपुर में उस समय करीब 100 संघाराम थे, जिनमेें महायान संप्रदाय के दस हजार भिक्षु निवास करते थे। यह स्थल दीर्घकाल तक ज्ञान-विज्ञान और कला का केन्द्र बना रहा। सिरपुर के पुरावैभव की ओर सबसे पहले ब्रिटिश विद्वान बेगलर व सर अलेक्जेंडर कनिंघम द्वारा आर्केलाजिकल सर्वे रिपोर्टस ऑफ इंडिया में प्रारंभिक विवरण प्रकाशित किए थे। सिरपुर में वर्ष 1953 से 1956 में बीच सागर विश्वविद्यालय एवं मध्यप्रदेश शासन के पुरातत्व विभाग द्वारा संयुक्त रूप से डॉ. एम.जी. दीक्षित के निदेशन में उत्खनन का कार्य करवाया गया। इस खुदाई में यहां टीले के भीतर दबे हुए दो बौद्ध विहार सामने आए। इसके अलावा पुरातात्विक महत्व की अनेक वस्तुएं भी मिलीं।
छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद सन् 2000 से वरिष्ठ पुरातत्वविद् अरूण कुमार शर्मा के निदेशन में उत्खनन का कार्य शुरू हुआ। इन दस वर्षों में सिरपुर में 38 टीलों की खुदाई की जा चुकी है। यहां करीब 184 टीलें हंै। सिरपुर में देश की पहली वेद पाठशाला मिली है। इसके अलावा यहां हिन्दू, जैन, बौद्ध, शैव और वैष्णव धर्म के प्रमाण भी मिले हैं। शैव और वैष्णव धर्म के धर्मावलंबियों के बीच की खाई पाटने के लिए इस ऐतिहासिक स्थल पर छह हरिहर मंदिर भी प्राप्त हुए हैं। खुदाई के दौरान अब तक यहां 18 मंदिर, 8 बुद्ध विहार और 3 जैन मंदिर मिले हैं। एक बड़ा महल और प्रधानमंत्री निवास भी प्राप्त हुआ है। सिरपुर में महानदी धनुष का आकार लिए है। इस उत्खनन में एक महत्वपूण बात यह भी सामने आई है कि सिरपुर एक पूर्ण विकसित नगर होने के साथ ही बड़ा शैक्षणिक व्यापारिक और आयुर्वेदिक केन्द्र भी था। पूर्णत: वास्तु के अनुरूप बने इस नगर में कई आर्युेदिक स्नानागार भी मिले हैं। साथ पूरे नगर में भूमिगत नालियां होना यह सिद्ध करता है कि सिरपुर कितना विकसित है। दुर्भाग्य कि बात है कि सदियों पहले जहां पानी की निकासी के लिए भूमिगत नालियां होती थीं वहीं आज इक्कीसवीं सदी में राजधनी रायपुर के लोग इस सुविधा से वंचित हैं।
सिरपुर के आसपास रहने वालों लोगों में सदियों से एक किदवंती चली आ रही है कि यहां अढ़ाई वर्ष का खर्चा छुपा हुआ है। यहां खर्चा से आशय धन या संपत्ति है। उत्खनन से यह किदवंती सही साबित हुई। दरअसल, पिछले वर्ष खुदाई के दौरान यहां अन्नागार मिले। अब तक 48 अन्नागार प्राप्त हो चुके हैं। इन अनाज भंडारों में इतना अनाज समा सकता है कि अगर ढ़ाई वर्ष तक अकाल पड़े , (ई. पूर्व तीसरी शताब्दी में) तब भी दक्षिण कोसल की जरूरत को पूरा किया जा सकता था। लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि सिरपुर का इतना समृद्ध इतिहास होते हुए भी देश-दुनिया के पर्यटकों और विद्यार्थियों को जानकारी देने की कोई पहल संस्कृति विभाग द्वारा नहीं की गई है। यहां जाने वाले पर्यटकों को जानकारी देने के लिए कोई गाईड तब उपलब्ध नहीं है। गौर करने वाली बात यह है कि उत्खनन के दौरान मिली बेशकीमती पुरावस्तुओं को प्रदर्शित करने के लिए अभी तक सिरपुर में कोई संग्रहालय तक नहीं बनाया जा सका। पुरातत्वविद् अरूण कुमार शर्मा ने इस ओर कई बार विभाग के अधिकारियों का ध्यान आकृष्ट भी कराया। वहीं छत्तीसगढ़ में उत्खनन के विशेषज्ञ पुरातत्वविदों की भी कमी है। राज्य के विश्वविद्यालयों में प्राचीन इतिहास तो पढ़ाया जाता है लेकिन आज तक कभी भी पंडित रविशंकर शुक्ल या गुरू घासीदास विश्वविद्यालयों के विद्यार्थियों को सिरपुर का भ्रमण नहीं कराया गया, ताकि वे अपने राज्य की इस समृद्ध विरासत को नजदीक से देख और समझ सकें। इसके अलावा उत्खनित स्थलों को जिस लापरपाही से बिना किसी सुरक्षा के छोड़ दिया गया है, वह भी चिंता का विषय है। पुरात्व और संस्कृति विभाग द्वारा मौजूदा वित्त वर्ष में ऐसे स्थलों के अनुरक्षण के लिए 58 लाख रूपए खर्च किए गए हैं, इसके बावजूद इन स्थलों का सौंदर्यीकरण तक नहीं हो सका है। उत्खनन के नाम पर करोड़ों रूपए खर्च कर देने से ही इसे विश्व मानचित्र पर नहीं लाया जा सकता है, इसके लिए स्थलों का उचित रख-रखाव और सौंदर्यीकरण भी आवश्यक है।
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छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद सन् 2000 से वरिष्ठ पुरातत्वविद् अरूण कुमार शर्मा के निदेशन में उत्खनन का कार्य शुरू हुआ। इन दस वर्षों में सिरपुर में 38 टीलों की खुदाई की जा चुकी है। यहां करीब 184 टीलें हंै। सिरपुर में देश की पहली वेद पाठशाला मिली है। इसके अलावा यहां हिन्दू, जैन, बौद्ध, शैव और वैष्णव धर्म के प्रमाण भी मिले हैं। शैव और वैष्णव धर्म के धर्मावलंबियों के बीच की खाई पाटने के लिए इस ऐतिहासिक स्थल पर छह हरिहर मंदिर भी प्राप्त हुए हैं। खुदाई के दौरान अब तक यहां 18 मंदिर, 8 बुद्ध विहार और 3 जैन मंदिर मिले हैं। एक बड़ा महल और प्रधानमंत्री निवास भी प्राप्त हुआ है। सिरपुर में महानदी धनुष का आकार लिए है। इस उत्खनन में एक महत्वपूण बात यह भी सामने आई है कि सिरपुर एक पूर्ण विकसित नगर होने के साथ ही बड़ा शैक्षणिक व्यापारिक और आयुर्वेदिक केन्द्र भी था। पूर्णत: वास्तु के अनुरूप बने इस नगर में कई आर्युेदिक स्नानागार भी मिले हैं। साथ पूरे नगर में भूमिगत नालियां होना यह सिद्ध करता है कि सिरपुर कितना विकसित है। दुर्भाग्य कि बात है कि सदियों पहले जहां पानी की निकासी के लिए भूमिगत नालियां होती थीं वहीं आज इक्कीसवीं सदी में राजधनी रायपुर के लोग इस सुविधा से वंचित हैं।
सिरपुर के आसपास रहने वालों लोगों में सदियों से एक किदवंती चली आ रही है कि यहां अढ़ाई वर्ष का खर्चा छुपा हुआ है। यहां खर्चा से आशय धन या संपत्ति है। उत्खनन से यह किदवंती सही साबित हुई। दरअसल, पिछले वर्ष खुदाई के दौरान यहां अन्नागार मिले। अब तक 48 अन्नागार प्राप्त हो चुके हैं। इन अनाज भंडारों में इतना अनाज समा सकता है कि अगर ढ़ाई वर्ष तक अकाल पड़े , (ई. पूर्व तीसरी शताब्दी में) तब भी दक्षिण कोसल की जरूरत को पूरा किया जा सकता था। लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि सिरपुर का इतना समृद्ध इतिहास होते हुए भी देश-दुनिया के पर्यटकों और विद्यार्थियों को जानकारी देने की कोई पहल संस्कृति विभाग द्वारा नहीं की गई है। यहां जाने वाले पर्यटकों को जानकारी देने के लिए कोई गाईड तब उपलब्ध नहीं है। गौर करने वाली बात यह है कि उत्खनन के दौरान मिली बेशकीमती पुरावस्तुओं को प्रदर्शित करने के लिए अभी तक सिरपुर में कोई संग्रहालय तक नहीं बनाया जा सका। पुरातत्वविद् अरूण कुमार शर्मा ने इस ओर कई बार विभाग के अधिकारियों का ध्यान आकृष्ट भी कराया। वहीं छत्तीसगढ़ में उत्खनन के विशेषज्ञ पुरातत्वविदों की भी कमी है। राज्य के विश्वविद्यालयों में प्राचीन इतिहास तो पढ़ाया जाता है लेकिन आज तक कभी भी पंडित रविशंकर शुक्ल या गुरू घासीदास विश्वविद्यालयों के विद्यार्थियों को सिरपुर का भ्रमण नहीं कराया गया, ताकि वे अपने राज्य की इस समृद्ध विरासत को नजदीक से देख और समझ सकें। इसके अलावा उत्खनित स्थलों को जिस लापरपाही से बिना किसी सुरक्षा के छोड़ दिया गया है, वह भी चिंता का विषय है। पुरात्व और संस्कृति विभाग द्वारा मौजूदा वित्त वर्ष में ऐसे स्थलों के अनुरक्षण के लिए 58 लाख रूपए खर्च किए गए हैं, इसके बावजूद इन स्थलों का सौंदर्यीकरण तक नहीं हो सका है। उत्खनन के नाम पर करोड़ों रूपए खर्च कर देने से ही इसे विश्व मानचित्र पर नहीं लाया जा सकता है, इसके लिए स्थलों का उचित रख-रखाव और सौंदर्यीकरण भी आवश्यक है।
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Wednesday, March 10, 2010
कब रूकेगा अंधविश्वासों का सिलसिला ?
कभी टोनही के नाम पर महिलाओं को प्रताड़ित करने तो कभी तंत्र-मंत्र सिध्दियों के लिए मासूमों की बलि देने जैसे क्रूरतम अंधविश्वासों का सिलसिला आखिर कब थमेगा ? विज्ञान और सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में अग्रण्ाी छत्तीसगढ़ राय में इस तरह की घटनाएं आज भी आम हैं। क्रूरता की पराकाष्ठा पार कर हाल ही सामने आई दो घटनाओं ने एक बार फिर सोचने के लिए झकझोर दिया है कि आखिर हम किस युग में जी रहे हैं। रोती, बिलखती, मौत के बाहों में झूलती जिंदगी भले ही इक्कीसवीं सदी के दसवें पायदान पर आ खड़ी हो गई हो, लेकिन आज के वैज्ञानिक युग में भी अंधविश्वास की पकड़ ढीली नहीं हुई है। धमतरी जिले के एक बैगा ने छह साल के मासूम बच्चे की बलि दे दी। जिला मुख्यालय से मात्र 4 किलोमीटर की दूरी पर स्थित बंजारी ग्राम के इस बैगा ने बच्चे का गला काटकर उसकी लाश बाड़ी में फेंक दी थी। वहीं राजधानी से सटे टेकारी गांव में एक युवक ने अपनी विधवा भाभी की सिर्फ इसलिए हत्या कर दी कि उसे उसके टोनही होने का शक था। इसी महीने घटित एक अन्य घटना में दुर्ग जिले के बेरला थाना क्षेत्र में एक गांव के कुछ लोगों द्वारा एक महिला को टोनही के नाम पर आए दिन सरे-राह प्रताड़ित किया जा रहा था। इस मामले में गनीमत इतनी रही कि उस महिला ने समय रहते पुलिस को सूचित कर दिया नहीं तो शायद वह भी अंधविश्वास के ठेकेदारों की दरिंदगी का शिकार हो जाती।
छत्तीसगढ़ में टोनही के आरोप में महिलाओं की प्रताड़ना का दौर कब थमेगा, इसका जवाब शायद किसी के पास नहीं है। राय के पिछड़े अंचलों में टोनही यानि डायन घोषित करके महिलाओं को सरेआम जलील करने और मास हिस्टीरिया की क्रूरतम परिणति के रूप में टोनहियों को मौत के घाट उतार देने की अनेक रोंगटे खड़े कर देने वाली घटनाएं इस प्रदेश के माथे पर कलंक हैं। हालांकि मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने इस कलंक को धोने का भरसर प्रयास किया। छत्तीसगढ़ विधान सभा में 19 जुलाई 2005 का दिन इस .ष्टिकोण से ऐतिहासिक रहा। सरकार के प्रयास से इस दिन टोनही प्रथा उन्मूलन विधेयक 2005 सदन में पारित हुआ। इस कड़े कानून के बनने के बाद उम्मीद की जा रही थी कि सदियों से चली आ रही इस कुप्रथा के अभिशाप से महिलाओं को मुक्ति मिल जाएगी।
लेकिन इतना कड़ा कानून लाने के बाद भी इस तरह की घटनाओं के बंद होने का सिलसिला थमा नहीं। आखिरकार राय की पुलिस ने भी टोनही प्रथा के खिलाफ लोगों को जागरूक करने और इस कानून की जानकारी देने का बीड़ा उठाया। पिछले वर्ष पुलिस महानिदेशक विश्वरंजन की पहल पर पुलिस विभाग द्वारा अंधविश्वासों से मुक्त करने के लिए राय के हर गाँव से एक-एक कार्यकर्ता को प्रशिक्षित करने की योजना बनाई गई। ऐसा कहा गया था कि ये प्रशिक्षित कार्यकर्ता अपने-अपने गाँव में पांरपरिक रूप से प्रचलित अंधविश्वासों, जैसे टोनही, डायन, झाड़-फूँक, धन दोगुना करने की चालाकियों, गड़े धन निकालने, शारीरिक, मानसिक आपदाओं को हल करने के लिए गंडे ताबीज, चमत्कारिक पत्थर एवं छद्म औषधियों का प्रयोग कर धन कमाने वाली गतिविधियों से सचेत करते हुए उनके पीछे की चालाकियों एवं ट्रिक्स की वैज्ञानिक व्याख्या और प्रायोगिक प्रदर्शन करके जनजागरण करेंगे। इस योजना के तहत करीब बीस हजार स्वंसेवी कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षित करने का दावा किया गया था, लेकिन पुलिस का यह प्रयास भी खोखला साबित हुआ। अब राय की पुलिस को भी यह सोचना होगा कि आखिर उसके प्रयास में कहां खोट रह गई।
गांवों में ही नहीं शहरों में भी अंधविश्वास की पैठ बहुत गहरे तक है। कुछ वर्ष पहले एक अफवाह फैली रात में डायन के घूमने की, जो प्याज मांगती है और ऐसा नहीं करने पर संतान को खतरा है। इस बे सिर-पैर वाली खबर का असर ऐसा दिखा कि गांवों के अलावा शहरों में यहां तक की राजधानी में भी लोगों ने अपने घर के सामने गोबर से ओम नम: शिवाय तक लिखवा डाला और तो और राय के एक पूर्व वरिष्ठ नेता तथा राय के कर्णधार रहे राजनीतिज्ञ तथा एक मंत्री भी इस काम में पीछे नहीं रहे। सवाल यह उठता है कि क्या अंधविश्वास इस कदर हमारे दिलों-दिमाग में अपनी जड़े जमाए हुए है ? ग्रामीण क्षेत्रों में टोनही के नाम पर हो रही प्रताड़ना को लेकर एक अहम सवाल यह भी खड़ा होता है कि गरीब, मजदूरी करने वाली, विधवा, परित्यक्ता और बेसहारा महिलाएं ही क्यों टोनही का शिकार होती हैं, रसूख वाले घरों की महिलाएं क्यों नहीं ? यह एक अभिशप्त, अशिक्षा तथा गरीबीजन्य त्रासदी है और ऐसी सामाजिक विकृति है जिससे हर ऐसी नारी जूझ रही है। बेसहारा और कमजोर महिलाओं को सताने का औजार है टोनही प्रथा। ताजा हालातों को देखते हुए ऐसा नहीं लगता कि केवल कड़ा कानून बना देने या कुछ लोगों को प्रशिक्षण दे देने से ही यह समस्या हल हो जाएगी। इसके लिए शिक्षा के प्रसार के साथ-साथ लोगों के दिमाग में बैठे अंधविश्वास के भूत को भी निकालना होगा। ऐसी व्यवस्था करनी होगी जिससे राय के किसी भी कोने में रहने वाली महिला को यह जानकारी हो सके कि ऐसी स्थिति में उसे क्या करना चाहिए। साथ ही सरकारी अमला भी ऐसे मामले में गंभीरतापूर्वक त्वरित कार्रवाई करे तभी इस अभिशाप से निपटा जा सकता है।
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छत्तीसगढ़ में टोनही के आरोप में महिलाओं की प्रताड़ना का दौर कब थमेगा, इसका जवाब शायद किसी के पास नहीं है। राय के पिछड़े अंचलों में टोनही यानि डायन घोषित करके महिलाओं को सरेआम जलील करने और मास हिस्टीरिया की क्रूरतम परिणति के रूप में टोनहियों को मौत के घाट उतार देने की अनेक रोंगटे खड़े कर देने वाली घटनाएं इस प्रदेश के माथे पर कलंक हैं। हालांकि मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने इस कलंक को धोने का भरसर प्रयास किया। छत्तीसगढ़ विधान सभा में 19 जुलाई 2005 का दिन इस .ष्टिकोण से ऐतिहासिक रहा। सरकार के प्रयास से इस दिन टोनही प्रथा उन्मूलन विधेयक 2005 सदन में पारित हुआ। इस कड़े कानून के बनने के बाद उम्मीद की जा रही थी कि सदियों से चली आ रही इस कुप्रथा के अभिशाप से महिलाओं को मुक्ति मिल जाएगी।
लेकिन इतना कड़ा कानून लाने के बाद भी इस तरह की घटनाओं के बंद होने का सिलसिला थमा नहीं। आखिरकार राय की पुलिस ने भी टोनही प्रथा के खिलाफ लोगों को जागरूक करने और इस कानून की जानकारी देने का बीड़ा उठाया। पिछले वर्ष पुलिस महानिदेशक विश्वरंजन की पहल पर पुलिस विभाग द्वारा अंधविश्वासों से मुक्त करने के लिए राय के हर गाँव से एक-एक कार्यकर्ता को प्रशिक्षित करने की योजना बनाई गई। ऐसा कहा गया था कि ये प्रशिक्षित कार्यकर्ता अपने-अपने गाँव में पांरपरिक रूप से प्रचलित अंधविश्वासों, जैसे टोनही, डायन, झाड़-फूँक, धन दोगुना करने की चालाकियों, गड़े धन निकालने, शारीरिक, मानसिक आपदाओं को हल करने के लिए गंडे ताबीज, चमत्कारिक पत्थर एवं छद्म औषधियों का प्रयोग कर धन कमाने वाली गतिविधियों से सचेत करते हुए उनके पीछे की चालाकियों एवं ट्रिक्स की वैज्ञानिक व्याख्या और प्रायोगिक प्रदर्शन करके जनजागरण करेंगे। इस योजना के तहत करीब बीस हजार स्वंसेवी कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षित करने का दावा किया गया था, लेकिन पुलिस का यह प्रयास भी खोखला साबित हुआ। अब राय की पुलिस को भी यह सोचना होगा कि आखिर उसके प्रयास में कहां खोट रह गई।
गांवों में ही नहीं शहरों में भी अंधविश्वास की पैठ बहुत गहरे तक है। कुछ वर्ष पहले एक अफवाह फैली रात में डायन के घूमने की, जो प्याज मांगती है और ऐसा नहीं करने पर संतान को खतरा है। इस बे सिर-पैर वाली खबर का असर ऐसा दिखा कि गांवों के अलावा शहरों में यहां तक की राजधानी में भी लोगों ने अपने घर के सामने गोबर से ओम नम: शिवाय तक लिखवा डाला और तो और राय के एक पूर्व वरिष्ठ नेता तथा राय के कर्णधार रहे राजनीतिज्ञ तथा एक मंत्री भी इस काम में पीछे नहीं रहे। सवाल यह उठता है कि क्या अंधविश्वास इस कदर हमारे दिलों-दिमाग में अपनी जड़े जमाए हुए है ? ग्रामीण क्षेत्रों में टोनही के नाम पर हो रही प्रताड़ना को लेकर एक अहम सवाल यह भी खड़ा होता है कि गरीब, मजदूरी करने वाली, विधवा, परित्यक्ता और बेसहारा महिलाएं ही क्यों टोनही का शिकार होती हैं, रसूख वाले घरों की महिलाएं क्यों नहीं ? यह एक अभिशप्त, अशिक्षा तथा गरीबीजन्य त्रासदी है और ऐसी सामाजिक विकृति है जिससे हर ऐसी नारी जूझ रही है। बेसहारा और कमजोर महिलाओं को सताने का औजार है टोनही प्रथा। ताजा हालातों को देखते हुए ऐसा नहीं लगता कि केवल कड़ा कानून बना देने या कुछ लोगों को प्रशिक्षण दे देने से ही यह समस्या हल हो जाएगी। इसके लिए शिक्षा के प्रसार के साथ-साथ लोगों के दिमाग में बैठे अंधविश्वास के भूत को भी निकालना होगा। ऐसी व्यवस्था करनी होगी जिससे राय के किसी भी कोने में रहने वाली महिला को यह जानकारी हो सके कि ऐसी स्थिति में उसे क्या करना चाहिए। साथ ही सरकारी अमला भी ऐसे मामले में गंभीरतापूर्वक त्वरित कार्रवाई करे तभी इस अभिशाप से निपटा जा सकता है।
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