Monday, October 12, 2009

मुलाकात गांधीवादी नेता केयूर भूषण से

छत्तीसगढ़ के शालीन सांसदों में केयूर भूषण की सादगी हमेशा सार्वजनिक चर्चा के केंद्र में रही। सहज-सरल स्वभाव के इस नेता ने दिखावे की जिंदगी को कभी तवज्जो नहीं दी। अस्सी साल से ज्यादा उम्र के इस गांधीवादी नेता की विशेषता है कि वे आज दिन भी साईकल से चलते हैं। स्वतंत्रता संग्राम में भी उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बासठवें स्वतंत्रता दिवस के मौके पर पत्रकार संजय दुबे द्वारा उनसे की गई बातचीत में आज के परिवेश में उनकी पीड़ा बरबस दिखाई देती है।
छत्तीसगढ़ में स्वतंत्रता आंदोलन की शुरूआत कब और कैसे हुई ?
छत्तीसगढ़ में अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष 1824 में तब शुरू हुआ जब परलकोट के जमीदार गैनसिंह ने बस्तर में सबसे पहले मोर्चा खोला। उस समय छत्तीसगढ़ अंग्रेजों की कंपनी सरकार और मराठों के संयुक्त सरकार के अधीन था । इसी दौरान बस्तर पर संयुक्त हमला हुआ, चंद्रपुर की तरफ से। दोनों फौजें आमने- सामने थीं। आबूझमाड़ क्षेत्र के आदिवासियों ने इस हमले का डटकर मुकाबला किया। इस हमले में सैकड़ों आदिवासी मारे गए, जिसका कोई रिकार्ड नहीं है। सबसे पहले विरोध करने वाले गैनसिंह को गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हीं के महल के सामने फांसी दे दी गई।
उसके बाद सन् 1857 के विद्रोह की आग छत्तीसगढ़ में भी भड़की। हालांकि छत्तीसगढ़ में इस आंदोलन की मूल वजह भूख रही। उसके पश्चात यहां भी स्वतंत्रता आंदोलन तेज होता गया और देश की स्वतंत्रता में छत्तीसगढ़ के लोगों ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसकी मूल वजह यहां की पीड़ा और स्वतंत्रता की भावना रही। इस आंदोलन की विशेषता यह थी कि इसमें बंजारों से लेकर राज परिवार तक के लोगों ने भाग लिया। अंग्रेजों के आने के बाद हीे छत्तीसगढ़ में अकाल पड़ा। इसके पहले यहां कभी अकाल नहीं पड़ा था। इस दौरान अंग्रेजी हुकूमत के विरोध में कई लोग उभर कर सामने आए, उसमें सबसे प्रमुख हैं सोनाखान के वीर नारायण सिंह। उस समय अकाल के कारण भूखमरी की स्थिति थी, अंगेज सरकार जनता के लिए कुछ नहीं कर रही थी और साहूकार लूट-खसोट पर उतारू हो गए थे। ऐसे में लोगों की पेट की भूख बुझाने के लिए वीर नारायण सिंह सामने आए। छत्तीसगढ़ में स्वतंत्रता आंदोलन की बुनियादी वजह भूख रही है। वीर नारायण सिंह ने न केवल लोगों को आनाज दिलाया बल्कि अपनी फौज बनाकर अंग्रेजों का मुकाबला भी किया। पकड़े जाने के बाद उन्हें फांसी दे दी गई। उधर हनुमान सिंह के नेतृत्व में फौज में बगावत हुई। अपने जनरल को मारने के बाद वे फरार हो गए, उनका आज तक पता नहीं चला। उनके सत्रह साथियों को रायपुर में, आज जहां पुलिस लाईन है, वहीं फांसी दे दी गई। लेकिन यह दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है कि आज तक उन शहीदों की याद में यहां एक स्तंभ तक नहीं लगा। यहां तक कि उनकी नाम पट्टिकाएं भी नहीं लगी हैं।
आप स्वतंत्रता आंदोलन से कैसे जुड़े ?
मेरा जन्म दुर्ग जिले में 1928 में हुआ और शुरूआती शिक्षा वहीं हुई। उसके बाद बिलासपुर आ गया। करीब 9 वर्ष उम्र रही होगी, जिस प्राइ्र्र्रमरी स्कूल में पढ़ता था वहां हमेशा स्वतंत्रता आंदोलन की चर्चा होती रहती थी। उस समय मेरा ज्यादातर समय मदारी के खेल देखने या सत्याग्रहियों का भाषण सुनने में बीतता था। पढ़ाई-लिखाई में मेरा ज्यादा मन नहीं लगता था, लेकिन मैं गीत जरूर लिखता था। गाहे-ब-गाहे भाषण भी दे लेता था। इसके बाद सन् चालीस-इकतालीस में मैं रायपुर आ गया। उस समय रायपुर में नगर पालिका के चुनाव हो रहा था। शहर में मुझे कई जगह ’’गरीबों का सहारा है ठाकुर हमारा -ठाकुर प्यारेलाल सिंह को वोट दें ‘‘ लिखा मिला। गरीबों का सहारा शब्द ने मुझे काफी प्रभावित किया और मैंने इस नारे को अपनी कापी के पन्नों में लिखकर घर-घर जाकर लोगों को बांटा। हालांकि उस वक्त तक मैं ठाकुर प्यारेलाल सिंह के बारे में नहीं जानता था। कुछ दिन बाद रायपुर में सत्याग्रह आंदोलन का भाषण सुनने का अवसर मिला और उसके बाद तो यह मेरी दिनचर्या बन गई। सन् 1942 के आंदोलन में तीन बार जेल भी गया।
आप सक्रिय राजनीति में कैसे आए ?
शुरूआती दिनों मैं कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ा और उसके बाद कांग्रेस में आया। सन् 1956 में छत्तीसगढ़ स्वतंत्र राज्य की मांग को लेकर रायपुर में एक सम्मेलन हुआ। इस सम्मेलन में करीब 50 हजार लोगों ने हिस्सा लिया और इसी दौरान छत्तीसगढ़ी महासभा का गठन किया गया। डाॅ. खूबचंद बघेल इसके अध्यक्ष बने और मैं इसका सह-सचिव था। यहीं से मेरे राजनीतिक जीवन की शुरूआत हुई। हालांकि मैं कांग्रेस का सीधे-सीधे सदस्य नहीं रहा।
आप राजनीति में किससे प्रभावित रहे ?
मैं आरंभ में कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रभावित था। हालांकि उस दौर के कई ऐसे नेता थे, जिन्होंने मुझे प्रभावित किया। मैं गांधीजी की विचारधारा से विशेष रूप से प्रभावित हुआ।
आज की राजनीति में कौन सी चीज आप को सबसे अधिक विचलित करती है ?
वर्तमान राजनीति में बहुत सी ऐसी चीजें हैं, जो मुझे विचलित करती हैं। छत्तीसगढ़ स्वतंत्र राज्य तो बन गया, लेकिन अभी भी छत्तीसगढ़ियों को शोषण से मुक्ति नहीं मिली। आज की राजनीति सत्तापरक हो गई है, व्यक्तिपरक नहीं रही। प्रदेश में उद्योगों को बसाने के नाम पर ग्रामीणों को उजाड़ा जा रहा है। मैं मानता हूं कि विकास में उद्योगों की महत्वपूर्ण भूमिका है, लेकिन ग्रामीण पीढ़ी-दर-पीढ़ी से जिस गांव, जिस घर में रहा रहा है, वहां से उसे उजाड़ कर नहीं।
नक्सल समस्या के समाधान के लिए आपने नक्सली नेताओं से बातचीत की सरकार से अनुमति मांगी थी। क्या आपको लगता है कि सरकार ने अनुमति न देकर ठीक नहीं किया ?
हो सकता है। आदिवासियों की समस्याओं ने नक्सलवाद को जन्म दिया है। आदिवासी आज जल, जंगल और जमीन के अपने अधिकार से वंचित हो रहे हैं। आज गांधीजी के ग्राम स्वराज के अवधारणा को अपनाने की जरूरत है। आदिवासियों को उनके अधिकारों से किसी भी हाल में वंचित नहीं रखा जाना चाहिए। ऐसा नहीं होने पर भूख, बेरोजगारी और हिंसा जन्म लेती है। बाहरी व्यापारियों ने यहां के आदिवासियों की जमीन हथियाने का नया तरीका निकाल लिया । अगर बस्तर की बात करें तो आज आलम ये है कि दूसरे राज्यों के व्यापारी यहां की ग्रामीण महिलाओं से विवाह कर, जमीन खरीद रहे हैं और उसके बाद वे महिलाएं मात्र नौकर बन कर रह जाती हैं। बस्तर मार्ग पर सड़कों के किनारे आदिवासियों के खेत देखने को नहीं मिलेंगे, अगर कुछ दिखेगा तो व्यापारियों के बड़े-बड़े कृषि फार्म। इसके अलावा मषीनों के अत्याधिक उपयोग पर भी रोक जरूरी है। जिन कामों को हाथ से किया जा सकता है, उसमें मशीनों का उपयोग नहीं होना चाहिए। जो मषीनें हाथ काट देती हैं, ऐसी मशीनें न लगाएं।
क्या नक्सली समस्या के समाधान के लिए आप कुछ प्रयास करने का सोच रहे हैं ?
जी हां। आगामी 2 अक्टूबर से गांधी विचार मंच की लगभग साढ़े आठ सौ टुकड़ियां विभिन्न ग्रामीण और नक्सल प्रभावित क्षेत्रों का दौरा करेंगी। ये दल ग्रामीण क्षेत्रों में रूकेंगे और ग्रामीण, नक्सली तथा राजनीतिक दलों से बात करेेंगे। इस दौरान ग्राम स्वराज पर विशेष जोर दिया जाएगा। क्योंकि ग्राम सभाओं के मजबूत और अधिकार संपन्न होने से भ्रष्टाचार कम होगा तथा ग्रामीण क्षेत्रों का सही विकास हो सकेगा।
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