डॉक्टर राजेन्द्र मिश्र प्रखर शिक्षाविद्, समालोचक, समीक्षक और वर्तमान दौर के प्रमुख साहित्यकारों में नक्षत्र के रूप में जाने जाते हैं। आज जब देश में साहित्यकारों की तादाद तेजी से बढ़ रही है उस भीड़ में वे सबसे अलग हैं। उनका यह साक्षत्कार मेरे द्वारा 09-09-09 को लिया गया था।
आपने अपनी साहित्यिक यात्रा की शुरूआत कब की ?
मेरा पहला लेख 1956-57 में नागपुर से प्रकाशित समाचार पत्र सारथी में छपा। इस पत्र के संपादक पंडित द्वारिका प्रसाद मिश्र थे। यह लेख संत कबीर पर केन्द्रित था। इसके पहले मैंने कुछ कविताएं भी लिखीं।
आप किन साहित्यकारों से प्रभावित हुए ?
कालेज की पढ़ाई के दौरान अंग्रेजी साहित्य का विद्यार्थी होने के कारण मैंने शेक्सपीयर और टीएस इलियट को पढ़ा। इन लेखकों से मैं काफी प्रभावित रहा। इसके अलावा पारिवारिक वातावरण भी ऐसा रहा, जिसने मुझे पढऩे को प्रेरित किया। मेरे पिताजी बिलासपुर में राघवेन्द्र राव लाइब्रेरी से पुस्तकें लाया करते थे। इस दौरान मैंने प्रेमचंद को पढ़ा। जब मैं छोटा था तब मेरे बाबा कहा करते थे, अगर तुम रामचरित मानस का एक कांड याद कर लोगे तो दो रूपए देंगे। उस समय दो रूपए काफी अहमियत रखते थे और बाबा के इस प्रलोभन से मैंने यह कठिन कार्य भी कर डाला। घर में मेरी मां रामचरित मानस का नियमित पाठ करती थीं। मेरे कान को दोहे-चौपाईयों का स्पर्श अपनी मां से मिला। बाद में अंग्रेजी में टीएस इलियट और हिंदी में अज्ञेय तथा गजानन माधव मुक्तिबोध का असर मुझ पर तब भी था और आज भी है।
आपको प्रभावित करने वाला कोई विशिष्ट लेखन या विवरण।
बीसवीं सदी की त्रासदी को टीएस इलियट ने वेस्ट लैण्ड में जिस तरह परिभाषित किया है, वह वास्तव में प्रभावित करने वाला है। वे बहुत ठोस और विवेकवान गद्य लिखते थे जो अद्भुत है। उनके अनुसार परंपरा दान में नहीं मिलती, इसे अर्जित करना पड़ता है। इसके अलावा तुलसीदास और निराला भी मेरी दृष्टि में महान भारतीय कवि या यू कहें संपूर्ण कवि थे।
आप साहित्य और संस्कृति को किस रूप में देखते हैं ?
मैं मानता हूं कि साहित्य अपने आप में संस्कृति का अपरिहार्य हिस्सा है। बगैर साहित्य के संस्कृति की कल्पना नहीं की जा सकती। संस्कृति वह है जो संस्कार देती है और साहित्य संस्कृति का रचनात्मक अवबोध है। मैं सोचता हूं कि भारतीय संस्कृति के केन्द्र में कवि रहा है। रामायण और महाभारत के बगैर भारतीय संस्कृति की कल्पना करना मुश्किल है। इन दोनों के लेखक कवि हैं। इस लिहाज से संस्कृति संवेदना का परिष्कार है और साहित्य इसका रचनात्मक माध्यम है। साहित्य अपने आप में सांस्कृतिक प्रक्रिया है। मैं सोचता हूं कि किसी भी समाज की अंतर्रात्मा और उसकी हलचल को उजागर करने का जो माध्यम है वह साहित्य है। साहित्य समाज का दर्पण नहीं है, जैसा आमतौर पर माना जाता है। दर्पण की सीमाएं हैं उसमें उतना ही देखा जा सकता है जितना आप दिखाई दे रहे हैं, जबकि साहित्य की संवेदना एक ओर जहां अतीत से रचनात्मक रिश्ता कायम करती है,वहीं उसमें भविष्य की परिकल्पना भी स्पंदित होती है, तो वह दर्पण कैसे हो सकता है ?
रचना के साथ आलोचना कितनी महत्वपूर्ण है ?
साहित्य अपने आप में समालोचना है। साहित्य या काव्य हृदय की मुक्ति है जबकि आलोचना बुद्धि की मुक्ति है। यानी रचना की तरह आलोचना भी एक महत्वपूर्ण साहित्यिक संस्था है। उसका काम केवल रचना को परिभाषित करना भर नहीं है बल्कि उसका एक बड़ा काम सभ्यता समीक्षा भी है। आचार्य रामचंद शुक्ल केवल साहित्यिक समीक्षक भर नहीं थे, उनके लिए संस्कृति और सभ्यता में आते हुए परिर्वतनों की पहचान भी उतनी ही महत्वपूर्ण थी। आलोचना सहयोगी प्रयास है।
साहित्य क्या व्यक्ति की अभिव्यक्ति है या समस्त की ?
साहित्य व्यक्ति के माध्यम से सार्वजनिक अभिव्यक्ति है। पूरी संस्कृति उस व्यक्ति की चेतना में छन के आगे आती है। साहित्य केवल अभिव्यक्ति ही नहीं है वह संप्रेषण भी है और संप्रेषण हमेशा दूसरों पर होता है।
बुनियादी तौर पर साहित्य में स्थानीयता के विवाद को आप किस रूप में देखते हैं ?
स्थानीयता सच्ची होनी चाहिए और सच्ची स्थानीयता में इतनी ऊ र्जा होती है कि वह स्थानीयता का अतिक्रमण करती है। तुलसीदास की जड़े अवधी में हंै, लेकिन वो सच्ची हैं इसलिए हर आदमी मरते समय रामचरित मानस का स्पर्श करना चाहता है। सच्ची स्थानीयता को 'लोकल इज ग्लोबलÓ के रूप में लिया जाना चाहिए।
कौन सी साहित्यिक बातें आपको अच्छी या बुरी लगती हैं ?
साहित्य में जो बुद्धि विरोधी बातें हैं वो मुझे कभी अच्छी नहीं लगती। मूखर्तापूर्ण व्यंग्य साहित्य मुझे पसंद नहीं। हिंदी में आज इतना खराब व्यंग्य साहित्य लिखा जा रहा है शायद संसार की किसी भी भाषा में उतना खराब साहित्य नहीं लिखा जा रहा है।
समकालीन हिंदी साहित्य आज किस दिशा में जा रहा है ?
वैसे भारतीय साहित्य अंगे्रजी में भी लिखा जा रहा है और कुछ लेखक वाकई बहुत अच्छा लिख रहे हैं। हर समय साहित्य में कचरा आता है, लेकिन पहचान सार्थक रचनाओं से करनी चाहिए। हिंदी में इस समय चार-पांच ऐसे कवि हैं, जो विश्व स्तर की कविताएं लिख रहे हैं। कहानी की बात करें तो कुछ अच्छे युवा कहानी लेखक सामने आ रहे हैं। लेकिन हमारा उपन्यास साहित्य कुछ कमजोर है। फिर भी जिस दृश्य में विनोद कुमार शुक्ल, अशोक वाजपेयी, कमलेश, विष्णु खरे, नामवर सिंह और कुंवर नारायण जैसे लेखक और आलोचक मौजूद हों, मैं उसे विपन्न नहीं मानता।
ऐसी क्या वजह है कि आपने अपने आप को कुछ समय से समेट लिया है या यूं कहें सरस्वती के मौन साधक बने हुए हैं ?
नहीं ऐसी बात नहीं है। अभी हाल ही में मुक्तिबोध पर आधारित मेरा काव्य संग्रह 'एक लालटेन के सहारेÓ छपकर आया है। फिलहाल मैं बीसवीं सदी की कविताओं को नए सिरे से पढ़ रहा हूं। हॉं ये बात जरूर है कि मैं बड़बोला नहीं हूं। वैसे अपनी अभिव्यक्ति के लिए साहित्य में एकाग्र होने की कोशिश जरूर करता हूं, ताकि बिखरी हुई अनुभूतियों को संग्रहित कर सकूं। साहित्य जीवन के प्रति विश्वास बनाए रखता है। आपने मौन होने की बात की तो व्यक्ति को मौन तो रहना ही चाहिए। मौन होकर बोलना चाहिए। बात करें सरस्वती कि तो सरस्वती की खूबी है कि वह अंत:शरीर हंै, दिखाई नहीं देती। दिखाई तो लक्ष्मी देती हैं। अब बारी आती है समेटने की तो अपने आप में समेटना ही तो साहित्य है। अगर समेटेंगे नहीं तो सब कुछ बिखर जाता है।
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