Friday, March 19, 2010

उपेक्षित धरोहर, बेसुध सरकार

दक्षिण कोसल के अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त पुरातात्विक स्थलों में की सूची में सिरपुर का स्थान सर्वोच्च है। महानदी के तट पर स्थित सिरपुर अतीत में सदियों से सांस्कृतिक विविधता एवं वास्तुकला का केन्द्र रहा है। सोमवंशी शासकों के काल में इसे दक्षिण कोसल की राजधानी होने का गौरव भी प्राप्त था। सातवीं सदी में चीन के महान पर्यटक तथा विद्वान ह्वेनसांग ने सिरपुर की यात्रा की थी। उनके अनुसार सिरपुर में उस समय करीब 100 संघाराम थे, जिनमेें महायान संप्रदाय के दस हजार भिक्षु निवास करते थे। यह स्थल दीर्घकाल तक ज्ञान-विज्ञान और कला का केन्द्र बना रहा। सिरपुर के पुरावैभव की ओर सबसे पहले ब्रिटिश विद्वान बेगलर व सर अलेक्जेंडर कनिंघम द्वारा आर्केलाजिकल सर्वे रिपोर्टस ऑफ इंडिया में प्रारंभिक विवरण प्रकाशित किए थे। सिरपुर में वर्ष 1953 से 1956 में बीच सागर विश्वविद्यालय एवं मध्यप्रदेश शासन के पुरातत्व विभाग द्वारा संयुक्त रूप से डॉ. एम.जी. दीक्षित के निदेशन में उत्खनन का कार्य करवाया गया। इस खुदाई में यहां टीले के भीतर दबे हुए दो बौद्ध विहार सामने आए। इसके अलावा पुरातात्विक महत्व की अनेक वस्तुएं भी मिलीं।
छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद सन् 2000 से वरिष्ठ पुरातत्वविद् अरूण कुमार शर्मा के निदेशन में उत्खनन का कार्य शुरू हुआ। इन दस वर्षों में सिरपुर में 38 टीलों की खुदाई की जा चुकी है। यहां करीब 184 टीलें हंै। सिरपुर में देश की पहली वेद पाठशाला मिली है। इसके अलावा यहां हिन्दू, जैन, बौद्ध, शैव और वैष्णव धर्म के प्रमाण भी मिले हैं। शैव और वैष्णव धर्म के धर्मावलंबियों के बीच की खाई पाटने के लिए इस ऐतिहासिक स्थल पर छह हरिहर मंदिर भी प्राप्त हुए हैं। खुदाई के दौरान अब तक यहां 18 मंदिर, 8 बुद्ध विहार और 3 जैन मंदिर मिले हैं। एक बड़ा महल और प्रधानमंत्री निवास भी प्राप्त हुआ है। सिरपुर में महानदी धनुष का आकार लिए है। इस उत्खनन में एक महत्वपूण बात यह भी सामने आई है कि सिरपुर एक पूर्ण विकसित नगर होने के साथ ही बड़ा शैक्षणिक व्यापारिक और आयुर्वेदिक केन्द्र भी था। पूर्णत: वास्तु के अनुरूप बने इस नगर में कई आर्युेदिक स्नानागार भी मिले हैं। साथ पूरे नगर में भूमिगत नालियां होना यह सिद्ध करता है कि सिरपुर कितना विकसित है। दुर्भाग्य कि बात है कि सदियों पहले जहां पानी की निकासी के लिए भूमिगत नालियां होती थीं वहीं आज इक्कीसवीं सदी में राजधनी रायपुर के लोग इस सुविधा से वंचित हैं।

सिरपुर के आसपास रहने वालों लोगों में सदियों से एक किदवंती चली आ रही है कि यहां अढ़ाई वर्ष का खर्चा छुपा हुआ है। यहां खर्चा से आशय धन या संपत्ति है। उत्खनन से यह किदवंती सही साबित हुई। दरअसल, पिछले वर्ष खुदाई के दौरान यहां अन्नागार मिले। अब तक 48 अन्नागार प्राप्त हो चुके हैं। इन अनाज भंडारों में इतना अनाज समा सकता है कि अगर ढ़ाई वर्ष तक अकाल पड़े , (ई. पूर्व तीसरी शताब्दी में) तब भी दक्षिण कोसल की जरूरत को पूरा किया जा सकता था। लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि सिरपुर का इतना समृद्ध इतिहास होते हुए भी देश-दुनिया के पर्यटकों और विद्यार्थियों को जानकारी देने की कोई पहल संस्कृति विभाग द्वारा नहीं की गई है। यहां जाने वाले पर्यटकों को जानकारी देने के लिए कोई गाईड तब उपलब्ध नहीं है। गौर करने वाली बात यह है कि उत्खनन के दौरान मिली बेशकीमती पुरावस्तुओं को प्रदर्शित करने के लिए अभी तक सिरपुर में कोई संग्रहालय तक नहीं बनाया जा सका। पुरातत्वविद् अरूण कुमार शर्मा ने इस ओर कई बार विभाग के अधिकारियों का ध्यान आकृष्ट भी कराया। वहीं छत्तीसगढ़ में उत्खनन के विशेषज्ञ पुरातत्वविदों की भी कमी है। राज्य के विश्वविद्यालयों में प्राचीन इतिहास तो पढ़ाया जाता है लेकिन आज तक कभी भी पंडित रविशंकर शुक्ल या गुरू घासीदास विश्वविद्यालयों के विद्यार्थियों को सिरपुर का भ्रमण नहीं कराया गया, ताकि वे अपने राज्य की इस समृद्ध विरासत को नजदीक से देख और समझ सकें। इसके अलावा उत्खनित स्थलों को जिस लापरपाही से बिना किसी सुरक्षा के छोड़ दिया गया है, वह भी चिंता का विषय है। पुरात्व और संस्कृति विभाग द्वारा मौजूदा वित्त वर्ष में ऐसे स्थलों के अनुरक्षण के लिए 58 लाख रूपए खर्च किए गए हैं, इसके बावजूद इन स्थलों का सौंदर्यीकरण तक नहीं हो सका है। उत्खनन के नाम पर करोड़ों रूपए खर्च कर देने से ही इसे विश्व मानचित्र पर नहीं लाया जा सकता है, इसके लिए स्थलों का उचित रख-रखाव और सौंदर्यीकरण भी आवश्यक है।
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