Wednesday, August 19, 2009

कवितायेँ

------मन का भरोसा नहीं-------
सुबह-सुबह का वक्त था
सोने में मैं मस्त था,
तभी सुनाई पड़ी कान में
मोबाइल की रिंग ---।
फ़ोन उठाकर मैंने पूछा,
हेलो ----कौन ?
बधाई, आपने की
दस करोड़ की कमाई .
तंत्रा टूटी, नींद हुई काफूर
बिस्तर से मैं उठ बैठा
कहा - आप श्रीमान कौन ?
जवाब मिला -
आपका सेल बना लक्की नंबर,
मिलेगा अब इनाम । बस
देनी होंगी कुछ जानकारियाँ ।
झट -पट बत्लादाला,
मैंने अपना पूरा बायोडाटा
लेकिन, अगले वाकये से
उड़ गए मेरे होश ।
अजनबी प्रोसेस बता रहा था,
पैसे लेने से पहले
कहाँ-कहाँ देने होंगें नोट
यह जानकारी सुना रहा था।
कुल मिलाकर
बस पाँच लाख की बात है
इसके बाद होंगें आप करोड़पति
लगेगा दौलत का अम्बार।
अब उसे झेलना ,
मेरे बस की बात नही थी
पाँच लाख की कौन कहे
पाँच हजार भी तो पास न थे ।
फ़ोन को किया डिस्कनेक्ट
सो गया मैं फ़िर से
सोच रहा था मैं
पाँच लाख होते तो
मैं आज करोड़पति होता ।
लेकिन तभी दिमाग की बत्ती जली
लगा यह धोखाधडी का
नया तरिका तो नहीं
अच्छा हुआ पाँच लाख नही थे,
मन का कुछ भरोसा नहीं -
मन का कुछ भरोसा नहीं ॥
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---------मेरे पाषाण देव ------------
मै नित्य नीर से सींच रहा,
यह सोच कभी तो पिघलोगे ।
मैंने पीपल की जड़ में रख
तुमको क्या सुन्दर छाँव दिया।
मत शुष्क बना दे तुम्हें धूप
इसलिए कूंप का ठांव दिया,
तुलसी का बिरवा रोप दिया
दल तोड़ कभी तो निकलोगे।
मैं नित्य नीर से ------
तुम दीख पड़े जब सड़क बीच
श्रद्धा से मैंने थाम लिया,
जब सोचा चोट हथौड़े की
तो हर-हर शंकर का नाम लिया,
सेवा में हूँ, पत्थर सुभाव
यह सोच कभी तो बदलोगे
मैं नित्य नीर से -----
तुम आशुतोष अवढरदानी
भोले बाबा कहलाते हो
पर मुझे समझ कर भस्मासुर
शायद इतना भय खाते हो,
मैं भी हूँ पीछे पड़ा हुआ
तुम लाज कभी तो रख लोगे
मैं नित्य नीर से -----
तुम हे मेरे पाषाण - देव !
सचमुच पत्थर के पत्थर हो
पत्थर ही है आवास- भूमि
पत्थर- कन्या के प्रियवर हो,
मैं भी पत्थर सा अडा हुआ
घर छोड़ कभी तो निकलोगे
मैं नित्य नीर से -----
पत्थर का तन यदि छोड़ मुझे
चैतन्य रूप दिखलाओगे
मत डरो किसी वैज्ञानिक की
प्रयोगशाला में जाओगे,
इसलिए आज समझाता हूँ
डर छोड़ कभी तो सम्हलोगे
मैं नित्य नीर से -----
तुम शायद भष्टाचार विरोधी
आंदोलनों से डरते हो
इसलिए समर्पित तुच्छ भेंट
स्वीकार न मेरी करते हो,
धीरज इसलिए बाँधता हूँ
यह भेंट कभी तो धर लोगे
मैं नित्य नीर से ----
दुनियाँ मुझको पागल समझे
मैं नित्य तुम्हें नहालाउगा
विश्वास- नीर से सींच-सींच
पत्थर का हृदय गलाउंगा,
मुझको किंचित संदेह नहीं
दुख-दर्द कभी तो हर लोगे
मैं नित्य नीर से सींच रहा
यह सोच कभी तो पिघलोगे ।
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1 comment:

  1. sanjay jee bhuuuuuuuuuuuuuuut achi kavita.
    "दुनियाँ मुझको पागल समझे
    मैं नित्य तुम्हें नहालाउगा
    विश्वास- नीर से सींच-सींच
    पत्थर का हृदय गलाउंगा,
    मुझको किंचित संदेह नहीं
    दुख-दर्द कभी तो हर लोगे
    मैं नित्य नीर से सींच रहा
    यह सोच कभी तो पिघलोगे" ।

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